Book Title: Jain Karm Siddhant ka Tulnatmaka Adhyayan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 101
________________ जैन कर्म सिद्धान्त : एक तुलनात्मक अध्ययन नदी का अस्तित्व तटों की मर्यादा में है। यदि नदी अपनी सीमारेखा (तट) को स्वीकार नहीं करती है तो क्या उसका अस्तित्व रह सकता है ? क्या वह अपने लक्ष्य जलनिधि (समुद्र) को प्राप्त कर सकती है, किंवा जन-कल्याण में उपयोगी हो सकती है ? प्रकृति यदि अपने नियमों में आबद्ध न रहे, वह मर्यादा तोड़ दे तो वर्तमान विश्व क्या अपना अस्तित्व बनाये रख सकता है ? प्रकृति का अस्तित्व स्वयं उनके नियमों पर है। डा० राधाकृष्णन् कहते हैं, “प्रकृति का मार्ग लोगों के मन में छाई भावना और संस्कार द्वारा नहीं, वरन् शाश्वत नियमों द्वारा निर्धारित होता है, विश्व पूर्ण रूप से नियमबद्ध है।"१ पशु जगत् के अपने नियम और अपनी मर्यादाएँ हैं, जिनके आधार पर वे अपनी जीवन-यात्रा सम्पन्न करते हैं। उनका आहार-विहार सभी नियमबद्ध है। वे निश्चित समय पर भोजन की खोज को जाते एवं वापस लौट आते हैं। उनके जीवन-कार्यों में एक व्यवस्था होती है। लेकिन उपर्युक्त सभी तथ्यों के प्रति आपत्ति यह की जा सकती है कि ये सभी नियम स्वभाविक या प्राकृतिक हैं जब कि मानवीय नैतिक नियम कृत्रिम या निर्मित होते हैं। अतएव उनकी महत्ता प्राकृतिक नियमों की महत्ता के आधार पर सिद्ध नहीं की जा सकती। ___ अब हम यह सिद्ध करने का प्रयत्न करेंगे कि मनुष्य के लिए निर्मित नैतिक नियम क्यों आवश्यक हैं । इस हेतु हमें सर्वप्रथम यह जान लेना आवश्यक होगा कि सामान्य प्राणी वर्ग और मनुष्य में क्या अन्तर है, जिसके आधार पर उसे नैतिक मर्यादाएँ (निर्मित नियम) पालन करने को कहा जा सकता है। यह निर्विवाद सत्य है कि प्राणी-वर्ग में मनुष्य ही ऐसा प्राणी है जिसमें चिन्तन की सर्वाधिक क्षमता है। उसका यह ज्ञानगुण या विवेकक्षमता ही उसे पशुओं से पृथक् कर उच्च स्थान प्रदान करती है। नैतिक नियम मानव-जाति के सहस्रों वर्षों के चिन्तन और मनन का परिणाम हैं। उनके मानने से इनकार करने का अर्थ होगा कि मनुष्य-जाति को उसकी ज्ञान-क्षमता से विलग कर पशु-जाति की श्रेणी में मिला देना। स्वाभाविक नियम तो पशुओं में भी होते हैं। उनका आचार-व्यवहार उन्हीं नियमों से शासित होता है। वे आहार की मात्रा, रक्षा के उपाय आदि का निश्चय इन स्वाभाविक नियमों के सहारे करते हैं। लेकिन मनुष्य की सार्थकता इसी में है कि वह स्वचिन्तन के आधार पर अपने हिताहित का ध्यान रख कर ऐसी मर्यादाएँ निश्चित करे जिससे वह परमसाध्य को प्राप्त कर सके । कांट ने कहा है कि “अन्य पदार्थ नियम के अधीन चलते हैं। मनुष्य नियम के प्रत्यय के आधीन १. हिन्दुओं का जीवन-दर्शन, पृ० ६८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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