Book Title: Jain Karm Siddhant ka Tulnatmaka Adhyayan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 106
________________ बन्धन से मुक्ति की ओर (संवर और निर्जरा) क्रमिक निर्जरा कहते हैं, अधिक महत्त्वपूर्ण नहीं हैं । यह पहला प्रकार साधना के क्षेत्र में ही नहीं आता है क्योंकि कर्मों के बन्ध और निर्जरा का यह क्रम तो सतत चला आ रहा है । हम प्रतिक्षण पुराने कर्मों की निर्जरा करते रहते हैं, लेकिन जब तक नवीन कर्मों का सृजन समाप्त नहीं होता, ऐसी निर्जरा से सापेक्ष रूप में कोई लाभ नहीं होता। जैसे कोई व्यक्ति पुराने ऋण का भुगतान तो करता रहे लेकिन नवीन ऋण भी लेता रहे तो वह ऋण-मुक्त नहीं हो पाता। जैन-दर्शन के अनुसार आत्मा सविपाक निर्जरा तो अनादिकाल से करता आ रहा है, लेकिन निर्वाण का लाभ प्राप्त नहीं कर सका। आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं "यह चेतन आत्मा कर्म के विपाककाल में सुखद और दुःखद फलों की अनुभूति करते हए पुन: दुःख के बीज रूप आठ प्रकार के कर्मों का बन्धन कर लेता है। क्योंकि कर्म जब अपना विपाक फल देते हैं, तो किसी निमित्त से देते हैं और अज्ञानी आत्मा शुभ निमित्त पर राग और अशुभ निमित्त पर द्वेष करके नवीन बन्ध कर लेता है"।' __ अतः साधना-मार्ग के पथिक के लिए पहले यह निर्देश दिया गया कि वह प्रथम ज्ञान-युक्त हो कर्मास्रव का निरोध कर अपने आपको संवृत करे। संवर के अभाव में निर्जरा का कोई मूल्य नहीं। औपक्रमिक निर्जरा के भेद- जैन विचारकों ने इस औपक्रमिक अथवा अविपाक निर्जरा के १२ भेद किये हैं, जो कि तप के ही १२ भेद हैं । वे इस प्रकार हैं-१. अनशन या उपवास, २. ऊनोदरी-आहार मात्रा में कमी, ३. भिक्षाचर्या अथवा वृत्ति संक्षेपमर्यादित भोजन, ४. रसपरित्याग-स्वादजय, ५. कायाक्लेश-आसनादि, ६. प्रतिसंलीनता-इन्द्रिय-निरोध, कषाय-निरोध, क्रिया-निरोध तथा एकांत निवास, ७. प्रायश्चित्त-स्वेच्छा से दण्ड ग्रहण कर पाप-शुद्धि या दुष्कर्मों के प्रति पश्चात्ताप, ८. विनयविनम्रवृत्ति तथा वरिष्ठजनों के प्रति सम्मान प्रकट करना, ९. वैयावृत्य-सेवा, १०. स्वाध्याय, ११. ध्यान और १२. व्युत्सर्ग-ममत्व-त्याग ।२ इस प्रकार साधक संवर के द्वारा नवीन-कर्मों के आस्रव ( आगमन. ) का निरोध कर तथा निर्जरा द्वारा पूर्व कर्मों का क्षय कर निर्वाण प्राप्त कर लेता है । ८. बौद्ध आचार-दर्शन और निर्जरा : ____ बुद्ध ने स्वतन्त्र रूप से निर्जरा के सम्बन्ध में कुछ कहा हो, ऐसा कहीं दिखाई नहीं दिया, फिर भी अंगुत्तरनिकाय में एक प्रसंग है, जहाँ बुद्ध के अन्तेवासी शिष्य - १. समयसार, ३८९. २, उत्तराध्ययन, ३०१७-८,३९ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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