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जैन कर्म सिद्धान्त : एक तुलनात्मक अध्ययन
सार वे आत्म-मल हैं, लेकिन इस आत्मवाद सम्बन्धी दार्शनिक भेद के होते हुए भी दोनों का साधनामार्ग आस्रव-क्षय के निमित्त ही है । दोनों की दृष्टि में अस्रवक्षय ही निर्वाण प्राप्ति का प्रथम सोपान है । बुद्ध कहते हैं, "भिक्षुओ, संस्कार, तृष्णा, वेदना, स्पर्श, अविद्या आदि सभी अनित्य, संस्कृत और किसी कारण से उत्पन्न होनेवाले हैं । भिक्षुओ इसे भी जान लेने और देख लेने से आस्रवों का क्षय होता है ।""
जैसे जैनपरम्परा में राग, द्वेष और मोह बन्धन के मूलभूत कारण माने गये हैं, वैसे ही बौद्ध परम्परा में लोभ ( राग ), द्वेष और मोह को बन्धन ( कर्मों की उत्पत्ति ) का कारण माना गया है । जो मूर्ख लोभ, द्वेष और मोह से प्रेरित होकर छोटा या बड़ा जो भी कर्म करता है, उसे उसी को भोगना पड़ता है, न कि दूसरे का किया हुआ । इसलिए बुद्धिमान् भिक्षु को चाहिए कि लोभ, द्वेष और मोह का त्याग कर विद्या का लाभ कर सारी दुर्गतियों से मुक्त हो । 3
इस प्रकार जैन और बौद्ध दोनों परम्पराओं में राग, द्वेष और मोह यही तीन बन्धन ( संसार - परिभ्रमण ) के कारण सिद्ध होते हैं । जैन और बौद्ध परम्पराओं में इस बन्धन की मूलभूत त्रिपुटी का सापेक्ष सम्बन्ध भी स्वीकार किया गया है । इस सम्बन्ध में आचार्य नरेन्द्रदेव लिखते हैं, "लोभ और द्वेष का हेतु मोह है - किन्तु पर्याय से राग, द्वेष भी मोह के हेतु हैं ।"४ राग, द्वेष और मोह में सापेक्ष सम्बन्ध है । अज्ञान ( मोह ) के कारण हम राग-द्वेष करते हैं और राग-द्वेष ही हमें यथार्थ ज्ञान से वंचित रखते हैं । अविद्या ( मोह ) के कारण तृष्णा ( राग ) होती है और तृष्णा ( राग ) के कारण मोह होता है ।
पाँच प्रकार ( १ ) एकान्त,
गीता की दृष्टि में बन्धन का कारण - -जैन परम्परा बन्धन के कारण के रूप में जो पाँच हेतु बताती है, उनको गीता की आचार परम्परा में बन्धन के हेतु के रूप में खोजा जा सकता है । जैन विचारणा के पाँच हेतु हैं - (१) मिथ्यात्व, (२) अविरति, ( ३ ) प्रमाद, (४) कषाय और ( ५ ) योग । गीता में मिथ्या दृष्टिकोण को संसार भ्रमण का कारण कहा गया है। इतना ही नहीं, मिथ्यात्व के (२) विपरीत, (३) संशय, ( ४ ) विनय ( रूढ़िवादिता ) और (५) अज्ञान में से विपरीत, संशय और अज्ञान इन तीन का विवेचन गीता में मिलता है । विनय को अगर रूढ़ परम्परा के अर्थ में लं तो गोता वैदिक रूड़ परम्पराओं की आलोचना के रूप में विनय को स्वीकार कर लेती है । हाँ, गीता में एकान्त का मिथ्यात्व के रूप में विवेचन उपलब्ध नहीं होता । अविरति का विवेचन गीता अशुचिव्रत के रूप में करती
१. संयुत्तनिकाय, २१ । ३ । ९. २. अंगुत्तरनिकाय, ३।३३ (१०१३७ ) . ३. वही, ३३३.
४. बौद्ध धर्मदर्शन, पृ० २५.
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