Book Title: Jain Karm Siddhant ka Tulnatmaka Adhyayan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prakrit Bharti Academy

View full book text
Previous | Next

Page 92
________________ कर्म-बन्ध के कारण, स्वरूप एवं प्रक्रिया ८३ बाधक है। क्लेशावरण जैन-दर्शन के चारित्र-मोह कर्म और ज्ञेयावरण केवलज्ञानावरण कर्म से तुलनीय है। वैसे जैन विचारणा द्वारा स्वीकृत कर्म के दो कार्य आवरण और विक्षेप की तुलना भी क्रमशः ज्ञेयावरण और क्लेशावरण से की जा सकती है। 55. कम्मभव और उप्पत्तिभव तथा घाती और अघाती कर्म __ अष्ट कर्मों में आत्मा के स्वभाव के आवरण की दृष्टि से चार कर्म घाती और चार कर्म अघाती माने गये हैं, लेकिन यदि नवीन बन्ध या पुनर्जन्म उत्पादक कर्म की दृष्टि से विचार करें तो एक मात्र मोह-कर्म ही नवीन बंध या पुनर्जन्म का उत्पादक है, शेष सभी कर्मों का बन्ध मोह-कर्म की उपस्थिति में ही होता है । मोह-कर्म की अनुपस्थिति में कोई ऐसा बन्ध नहीं होता जिसके कारण आत्मा को जन्ममरण के चक्र में फँसना पड़े। . बौद्ध-दर्शन में आत्मा के स्वभाव को आवरित करनेवाले घाती और अघाती कर्मों के सम्बन्ध में तो कोई विचार उपलब्ध नहीं है लेकिन उसमें पुनर्जन्म उत्पादक कर्म की दृष्टि से कम्मभव और उप्पत्तिभव का विचार अवश्य उपलब्ध है। प्रतीत्यसमुत्पाद की १२ कड़ियों में अविद्या, संस्कार, तृष्णा, उपादान और भव पाँच कम्मभव हैं। इनके कारण जन्म-मरण की परम्परा का प्रवाह चलता रहता है । शेष विज्ञान, नामरूप, षडायतन, स्पर्श, वेदना, जाति और जरामरण उत्पत्तिभव हैं, जो अपनी उदय या विपाक अवस्था में नये बन्धन का सृजन नहीं करते हैं । कम्मभव में अविद्या और संस्कार भूतकालीन जीवन के अर्जित कर्म-संस्कार या चेतनासंस्कार हैं । ये संकलित होकर विपाक के रूप में हमारे वर्तमान जीवन के उत्पत्तिभव (विज्ञान, नामरूप, षडायतन, स्पर्श और वेदना) का निश्चय करते हैं। तत्पश्चात् वर्तमान जीवन के तृष्णा, उपादान और भव स्वयं कम्मभव के रूप में भावी जीवन के उत्पत्तिभव के रूप में जाति और जरामरण का निश्चय करते हैं। वर्तमान जीवन के तृष्णा, उपादान और भव भावी-जीवन के अविद्या और संस्कार बन जाते हैं और वर्तमान में भावी जीवन के लिए निश्चित हुए जाति और जरामरण भावी जीवन में विज्ञान, नामरूप और षडायतन के कारण होते हैं। इस प्रकार कम्मभव रचनात्मक कर्म शक्ति के रूप में जैन-दर्शन के मोह-कर्म के समान जन्ममरण की शृखंला का सर्जक है और उत्पत्ति-भव शेष निष्क्रिय कर्म अवस्थाओं के समान है, जो मोहकर्म या कम्मभव के अभाव में जन्म-मरण की परम्परा के प्रवाह को बनाये रखने में असमर्थ है। इस प्रकार बौद्ध-दर्शन का कर्मभव जैनदर्शन के मोह-कर्म से और उत्पत्ति-भव जैन विचारणा की शेष कर्म अवस्थाओं के समान है। इसे निम्न तुलनात्मक तालिका से स्पष्ट किया जा सकता है-- Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110