Book Title: Jain Karm Siddhant ka Tulnatmaka Adhyayan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 93
________________ ८४ कम्मभव बौद्ध परम्परा १. अविद्या २. संस्कार ३. तृष्णा ४. उपादान ५. भव } } उत्पत्तिभव ६. विज्ञान ७. नाम - रूप ८. षडायतन ९. स्पर्श १०. वेदना ११. जाति-मरण } जैन कर्म सिद्धान्त : एक तुलनात्मक अध्ययन १. पंचास्तिकायसार, ३८. Jain Education International जैन - परम्परा मोहकर्म की सत्ता की अवस्था । मोहकर्म की विपाक और नवीन बन्ध की अवस्था । ज्ञानावरण, दर्शनावरण आयुष्य, नाम, गोत्र और वेदनीय कर्म की विपाक अवस्था । ९. चेतना के विभिन्न पक्ष और बन्धन कर्म - अकर्म विचार में हमने देखा कि बन्धन मुख्य रूप से कर्ता की चैत्तसिक अवस्था पर आधारित है, अतः यह विचार भी आवश्यक है कि चेतना और बन्धन के बीच क्या सम्बन्ध है ? आधुनिक मनोविज्ञान में चेतना भावी जीवन के लिए आयुष्य, नाम, गोत्र आदि कर्मों की बन्ध की अवस्था । आधुनिक मनोविज्ञान चेतना के तीन पक्ष मानता है, जिन्हें क्रमश: ( १ ) ज्ञानात्मक पक्ष, (२) भावात्मक पक्ष और (३) संकल्पात्मक पक्ष कहा जाता है । इन्हीं तीन पक्षों के आधार पर चेतना के तीन कार्य माने जाते हैं - १. जानना २. अनुभव करना ३. इच्छा करना । भारतीय चिन्तन में भी चेतना के इन तीन पक्षों अथवा कार्यों के सम्बन्ध में प्राचीन समय से ही पर्याप्त विचार किया गया है । आचार्य कुन्दकुन्द ने चेतना के निम्न तीन पक्षों का निर्देश किया है- १. ज्ञानचेतना २. कर्मचेतना और ३. कर्मफलचेतना । तुलनात्मक दृष्टि से विचार करने पर ज्ञान-चेतना को चेतना के ज्ञानात्मक पक्ष से, कर्मफलचेतना को चेतना के भावात्मक (अनुभूत्यात्मक) पक्ष से और कर्म - चेतना को चेतना के संकल्पात्मक पक्ष के समकक्ष माना जा सकता है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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