Book Title: Jain Karm Siddhant ka Tulnatmaka Adhyayan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 90
________________ कर्म-बन्ध के कारण, स्वरूप एवं प्रक्रिया ८१ ६. स्पर्श--षडायतन अर्थात् इन्द्रियों एवं मन के होने से उनका अपने-अपने विषयों से सम्पर्क होता है। यह इन्द्रियों और विषय का संयोग ही स्पर्श है। यह षडायतनों पर निर्भर होने से छह प्रकार का है--आँख-स्पर्श (देखना), कान का स्पर्श (सुनना), नाक का स्पर्श (गन्ध-ग्रहण), जीभ का स्पर्श (स्वाद), शरीर का स्पर्श (त्वक् संवेदना) और मन का स्पर्श (विचार-संकल्प)। ये सभी कुशल या अकुशल कर्म के विपाक माने गये हैं। ७. वेदना-वेदना स्पर्श-जनित है। इन्द्रिय और विषयों के संयोग का मन पर पड़ने वाला प्रथम प्रभाव वेदना है। इन्द्रियों के होने पर उनका अपने-अपने विषयों से सम्पर्क होता है और वह सम्पर्क हमारे मन पर प्रभाव डालता है । यह प्रभाव चार प्रकार का होता है--१. सुख रूप, २. दुःख रूप, ३. सुख-दुःख रूप और ४. असुख-अदुःख रूप। पाँच इन्द्रियों एवं मन की अपेक्षा से वेदना के छह विभाग भी किये गये हैं। स्पर्श और वेदना जैन-विचारणा के वेदनीय कर्म के समान हैं। सुखरूप वेदना सातावेदनीय और दुःख-रूप वेदना असातावेदनीय से तुलनीय है। असुख-अदुःख रूप-वेदना की तुलना जैन दर्शन की वेदनीय कर्म की प्रदेशोदय नामक अवस्था से की जा सकती है। ८. तृष्णा-इन्द्रियों एवं मन के विषयों के सम्पर्क की चाह तृष्णा है। यह छह प्रकार की होती है—शब्द-तृष्णा, रूप-तृष्णा, गंध-तृष्णा, रस (आस्वाद)-तृष्णा, स्पर्श-तृष्णा और मन के विषयों की तृष्णा। इनमें से प्रत्येक कामतृष्णा, भवतृष्णा और विभवतृष्णा के रूप में तीन प्रकार की होती है। विषयों के भोग की वासना को लेकर जो तृष्णा उदित होती है, वह काम-तृष्णा है। विषय (पदार्थ) और विषयी (भोक्ता) का संयोग सदैव बना रहे, उनका उच्छेद न हो, यह लालसा भवतृष्णा है। यह शाश्वतता या बने रहने की तृष्णा है । अरुचिकर या दुःखद संवेदन रूप विषयों के सम्पर्क को लेकर जो विनाश-सम्बन्धी इच्छा उदित होती है, वह विभव तृष्णा है। यह द्वेष स्थानीय एवं अनस्तित्व की तृष्णा है । तृष्णा लोभ का ही रूप है । इस प्रकार यह जैन-दर्शन के चारित्रमोह कर्म के अन्तर्गत आ जाती है। एक दूसरे प्रकार से तृष्णा अपूर्ण या अतृप्त इच्छा है और इस प्रकार यह अन्तराय कर्म से भी तुलनीय है, यद्यपि दोनों में अधिक निकटता नहीं है। ६. उपादान-उपादान का अर्थ आसक्ति है जो तृष्णा के कारण होती है। उपादान चार प्रकार के हैं—१. कामूपादान-कामभोग में गृद्ध बने रहना, २. दिठ्ठपादान-मिथ्या धारणाओं से चिपके रहना, ४. सीलब्बत्तूपादान-व्यर्थ के कर्मकाण्डों में लगे रहना और ४. अत्तवादूपादान-आत्मवाद में आसक्ति रखना। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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