Book Title: Jain Karm Siddhant ka Tulnatmaka Adhyayan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prakrit Bharti Academy

View full book text
Previous | Next

Page 84
________________ कर्मबन्ध के कारण, स्वरूप एवं प्रक्रिया ७५: प्रकार नाम-कर्म विभिन्न परमाणुओं से जगत् के प्राणियों के शरीर की रचना करता है । मनोविज्ञान की भाषा में नाम-कर्म को व्यक्तित्व का निर्धारक तत्त्व कह सकते हैं । जैन दर्शन में व्यक्तित्व के निर्धारक तत्त्वों को नाम कर्म की प्रकृति के रूप में जाना जाता है, जिनकी संख्या १०३ मानी गई है लेकिन विस्तारभय से उनका वर्णन सम्भव नहीं है । उपर्युक्त सारे वर्गीकरण का संक्षिप्त रूप है - १. शुभनामकर्म (अच्छा व्यक्तित्व) और २ अशुभनामकर्म ( बुरा व्यक्तित्व ) । प्राणी - जगत् में जो आश्चर्यजनक वैचित्र्य दिखाई देता है, उसका प्रमुख कारण नामकर्म है । शुभनाम कर्म के बन्ध के कारण - जैनागमों में अच्छे व्यक्त्वि की उपलब्ध के चार कारण माने गये हैं- १. शरीर की सरलता, २ . वाणी की सरलता, ३. मन या विचारों की सरलता, ४. अहंकार एवं मात्सर्य से रहित होना या सामञ्जस्य पूर्ण जीवन | शुभनामकर्म का विपाक -- उपर्युक्त चार प्रकार के शुभाचरण से प्राप्त शुभ व्यक्तित्व का विपाक १४ प्रकार का माना गया है - १. अधिकारपूर्ण प्रभावक वाणी ( इष्ट शब्द), २. सुन्दर सुगठित शरीर (इष्ट रूप ), ३. शरीर से निःसृत होनेवाले मलों में भी सुगंधि (इष्टगंध), ४. जैवीय रसों की समुचितता ( इष्ट रस ), ५. त्वचा का सुकोमल होना ( इष्ट स्पर्श ), ६. अचपल योग्य गति ( इष्ट गति), ७. अंगों का समुचित स्थान पर होना (इष्ट स्थिति), ८. लावण्य, ९. यशः कीर्ति का प्रसार ( इष्ट यशः कीर्ति), १०. योग्य शारीरिक शक्ति (इष्ट उत्थान, कर्म, बलवीर्य, पुरुषार्थ और पराक्रम), ११. लोगों को रुचिकर लगे ऐसा स्वर, १२. कान्त स्वर, १३. प्रिय स्वर और १४. मनोज्ञ स्वर । अशुभ नाम कर्म के कारण - निम्न चार प्रकार के (प्राणी) को अशुभ व्यक्तित्व की उपलब्धि होती है - १. वचन की वक्रता, ३. मन की वक्रता, ४. अहंकार एवं मात्सर्य वृत्ति या असामंजस्य -- पूर्ण जीवन । ३ अशुभाचरण से व्यक्ति शरीर की वक्रता, २ . अशुभनाम कर्म का विपाक - १. अप्रभावक वाणी (अनिष्ट शब्द), २. असुन्दर शरीर (अनिष्ट स्पर्श), ३. शारीरिक मलों का दुर्गन्धयुक्त होना ( अनिष्ट गंध), ४. जैवीय रसों की असमुचितता ( अनिष्ट रस ), ५. अप्रिय स्पर्श, ६. अनिष्ट गति, ७. अंगों का समुचित स्थान पर न होना ( अनिष्ट स्थिति), ८. सौन्दर्य का अभाव, ९. अपयश, १०. पुरुषार्थ करने की शक्ति का अभाव, ११. हीन स्वर, १२. दीन स्वर, १३. अप्रिय स्वर और १४, अकान्त स्वर १. तत्त्वार्थसूत्र, ६।२२. ३. तत्त्वार्थसूत्र ६।२१. Jain Education International २. नवपदार्थ ज्ञानसार, पृ० २३९. ४. नवपदार्थ ज्ञानसार, पृ० २३९. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110