Book Title: Jain Karm Siddhant ka Tulnatmaka Adhyayan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 79
________________ ७० जैन कर्म सिद्धान्त : एक तुलनात्मक अध्ययन सातावेदनोय कर्म के कारण-दस प्रकार का शुभाचरण करने वाला व्यक्ति सुखद-संवेदना रूप सातावेदनीय कर्म का बन्ध करता है--१ पृथ्वी, पानी आदि के जीवों पर अनुकम्पा करना। २. वनस्पति, वृक्ष, लतादि पर अनुकम्पा करना । ३. द्वीन्द्रिय आदि प्राणियों पर दया करना। ४. पंचेन्द्रिय पशुओं एवं मनुष्यों पर अनुकम्पा करना । ५. किसी को भी किसी प्रकार से दुःख न देना । ६. किसी भी प्राणी को चिन्ता एवं भय उत्पन्न हो ऐसा कार्य न करना । ७. किसी भी प्राणी को शोकाकुल नहीं बनाना । ८. किसी भी प्राणी को रुदन नहीं कराना । ९. किसी भी प्राणी को नहीं मारना और १०. किसी भी प्राणी को प्रताड़ित नहीं करना ।' कर्मग्रन्थ में सातावेदनीय कर्म के बन्धन का कारण गुरुभक्ति, क्षमा, करुणा, व्रतपालन, योग-साधना, कषायविजय, दान और दृढ़श्रद्धा माना गया है। तत्त्वार्थसूत्रकार का भी यही दृष्टिकोण है । ३ सातावेदनीय कर्म का विपाक-उपर्युक्त शुभाचरण के फलस्वरूप प्राणी निम्न प्रकार की सुखद संवेदना प्राप्त करता है--१. मनोहर, कर्णप्रिय, सुखद स्वर श्रवण करने को मिलते हैं, २. मनोज्ञ, सुन्दर रूप देखने को मिलता है, ३. सुगन्ध की संवेदना होती है, ४. सुस्वादु भोजन-पानादि उपलब्ध होता है, ५. मनोज्ञ, कोमल स्पर्श व आसन शयनादि की उपलब्धि होती है, ६. वांछित सुखों की प्राप्ति होती है, ७. शुभ वचन, प्रशंसा दि सुनने का अवसर प्राप्त होता है, ८. शारीरिक सुख मिलता है।४ असातावेदनीय कर्म के कारग-जिन अशुभ आचरणों के कारण प्राणी को दुःखद संवेदना प्राप्त होती है, वे १२ प्रकार के हैं-१. किसी भी प्राणी को दुःख देना, २. चिन्तित बनाना, ३. शोकाकुल बनाना, ४. रुलाना, ५. मारना और ६. प्रताड़ित करना, इन छ: क्रियाओं की मंदता और तीव्रता के आधार पर इनके बारह प्रकार हो जाते है। तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार १. दुःख, २. शोक, ३. ताप, ४. आक्रन्दन, ५. वध और ६. परिदेवन ये छ: असातावेदनीय कर्म के बन्ध के कारण हैं जो 'स्व' और 'पर' की अपेक्षा से १२ प्रकार के हो जाते हैं । स्व एवं पर की अपेक्षा पर आधारित तत्त्वार्थसूत्र का यह दृष्टिकोण अधिक संगत है।६ कर्मग्रन्थ में सातावेदनीय के बन्ध के कारणों के विपरीत गुरु का अविनय, अक्षमा, क्रूरता, अविरति, योगाभ्यास नहीं करना, कषाययुक्त होना, तथा दान एवं १. नवपदार्थ ज्ञानसार, पृ० २३७. । ३. तत्त्वार्थसूत्र, ६।१३. ५. वही, पृ० २३७. २. कर्मग्रन्थ, ११५५. ४. नवपदार्थ ज्ञानसार, पृ० २३७. ६. तत्त्वार्थसूत्र, ६।१२. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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