Book Title: Jain Karm Siddhant ka Tulnatmaka Adhyayan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 55
________________ ४६ जैन कर्म सिद्धान्त : एक तुलनात्मक अध्ययन फल के रूप में क्यों न हों। जैनाचारदर्शन में राग-द्वेष से रहित होकर किया गया शुद्ध कार्य ही मोक्ष या निर्वाण का कारण माना गया है और आसक्तिपूर्वक किया गया शुभ कार्य भी बन्धन का कारण माना गया है । यहाँ पर गीता का अनासक्त कर्म-योग जैन दर्शन के अत्यन्त समीप आ जाता है। जैन दर्शन के अनुसार आत्मा का लक्ष्य अशुभ कर्म से शुभ कर्म की और शुभ से शुद्धकर्म ( वीतराग दशा) की प्राप्ति है । आत्मा का शुद्धोपयोग ही जैन नैतिकता का अन्तिम साध्य है। बौद्ध दृष्टिकोण बौद्ध दर्शन भी जैन दर्शन के समान नैतिक साधना की अन्तिम अवस्था में पुण्य और पाप दोनों से ऊपर उठने की बात कहता है और इस प्रकार वह भी समान विचारों का प्रतिपादन करता है। भगवान बुद्ध सुत्तनिपात में कहते हैं कि जो पुण्य और पाप को दूर कर शांत ( सम) हो गया है, इस लोक और परलोक ( के यथार्थ स्वरूप ) को जान कर ( कर्म ) रज रहित हो गया है, जो जन्म-मरण से परे हो गया है, वह श्रमण स्थिर, स्थितात्मा ( तथता ) कहलाता है ।' सभिय परिव्राजक द्वारा बुद्ध-वंदना में यही बात दोहरायी गयो है । वह बुद्ध के प्रति कहता है, जिस प्रकार सुन्दर पुण्डरीक कमल पानी में लिप्त नहीं होता, उसी प्रकार आप पुण्य और पाप दोनों में लिप्त नहीं होते । इस प्रकार बौद्ध दर्शन का भी अन्तिम लक्ष्य शुभ और अशुभ से ऊपर उठना है। गीता का दृष्टिकोण गीताकार ने भी यह सकेत किया है कि मुक्ति के लिए शुभाशुभ दोनों प्रकार के कर्मफलों से मुक्त होना आवश्यक है । श्रीकृष्ण कहते हैं, हे अर्जुन, तू जो भी कर्म करता है, जो कुछ खाता है, जो कुछ हवन करता है, जो कुछ दान देता है अथवा तप करता है वह सभी शुभाशुभ कर्म मुझे अर्पित कर दे अर्थात उनके प्रति किसी प्रकार की आसक्ति या कर्तृत्वभाव मत रख । इस प्रकार संन्यास-योग से युक्त होने पर तू शुभाशुभ फल देनेवाले कर्म-बन्धन से छूट जायेगा और मुझे प्राप्त होवेगा। गीताकार स्पष्ट करता है कि शुभ और अशुभ दोनों ही कर्म बन्धन है और मुक्ति के लिए उनसे ऊपर उठना आवश्यक है। बुद्धि माम् मनुष्य शुभ और अशुभ या पुण्य और पाप दोनों को त्याग देता है । सच्चे भक्त का लक्षण बताते हुए कहा गया है कि जो शुभ और अशुभ दोनों का परित्याग कर चुका है अर्थात् जो दोनों से ऊपर उठ चुका है वह भक्तियुक्त पुरुष मुझे प्रिय है ।" डा० राधाकृष्णन् ने गोता के परिचयात्मक निबन्ध में भी इसी धारणा को प्रस्तुत किया। वे आचार्य कुन्दकुन्द के साथ समःवर होकर १. सुत्त नपात, ३२।११. २. वही, ३२।३८. ३. गीता, ६।२८. ४. वही, २।५०. ५ वही, १२।१६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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