Book Title: Jain Karm Siddhant ka Tulnatmaka Adhyayan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 54
________________ कर्म का अशुभत्व, शुभत्व एवं शुद्धत्व ऋषिभासित सूत्र में ऋषि कहता है, पूर्वकृत पुण्य और पाप संसार संतति के मूल है ।' आचार्य कुन्दकुन्द पुण्य-पाप दोनों को बन्धन का कारण कहकर दोनों के बन्धकत्व का अन्तर भी स्पष्ट कर देते हैं । समयसार में वे कहते हैं कि अशुभ कर्म पाप ( कुशील ) और शुभ कर्म पुण्य ( मुशील ) कहे जाते हैं, फिर भी पुप कर्म संसार ( बन्धन ) का कारण है जिस प्रकार स्वर्ण की बेड़ी भी लौह बेड़ी के समान ही पनि को बन्धन में रखती है, उमी प्रकार जीवकृत सभी शुभाशुभ कर्म भी बन्धन के कारण हैं। फिर भी आचार्य पुण्य को स्वर्ण-बेड़ी कहकर उसकी पाप से किञ्चित् श्रेष्ठता सिद्ध कर देते हैं । आचार्य अमृतवन्द्र का कहना है कि पारमार्थिक दृष्टि से पुण्य और पाप दोनों में भेद नहीं किया जा सकता, क्योंकि अन्ततोगत्वा दोनों ही बन्धन हैं। यही बात पं० जयचन्द्रजी भी कहते हैं पुण्य पाप दोऊ करम, बंघरूप दुई मानि। शुद्ध आत्मा जिन लह्यो, नमू चरन हित जानि ॥४ जैनाचार्यों ने पुण्य को निर्वाण की दृष्टि से हेय मानते हुए भी उमे निर्वाण का सहायक तत्त्व स्वीकार किया है। निर्वाण प्राप्त करने के लिए अन्ततोगत्वा पण्य को त्यागना ही होता है, फिर भी वह निर्वाण में ठीक उसी प्रकार सहायक है जैसे साबुन वस्त्र के मैल को साफ करने में सहायक है । शुद्ध वस्त्र के लिए साबुन का लगा होना अनावश्यक है उसे भी अलग करना होता है, वैसे ही निर्वाण या शुद्धात्म-दशा में पुण्य का होना भी अनावश्यक है, उसे भी छोड़ना होता है। जिस प्रकार साबुन मैल को दर करता है और मैल छूटने पर स्वयं अलग हो जाता है, वैसे ही पुण्य भी पापरूप मल को अलग करने में सहायक होता है और उसके अलग हो जाने पर स्वयं भी अलग हो जाता है । अतः व्यक्ति जब अशुभ ( पाप ) कर्म से ऊपर उठ जाता है, तब उसका शुभ कर्म भी शुद्ध कर्म बन जाता है । द्वेष पर पूर्ण विजय पा जाने पर राग भी नहीं रहता है, अतः राग-द्वेष के अभाव में उससे जो कर्म निस्सृत होते हैं, वे शुद्ध ( ईर्यापथिक ) होते हैं। पुण्य ( शुभ ) कर्म के सम्बन्ध में एक महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि पुण्योपार्जन की उपर्युक्त क्रियाएँ जब अना रक्तभाव से की जाती हैं, तो वे शुभ बन्ध का कारण न होकर कर्मक्षय ( संवर और निर्जरा ) का कारण बन जाती हैं। इसी प्रकार संवर और निर्जरा के कारण संयम और तप जब आसक्तभाव या फलाकांक्षा ( निदान अर्थात उनके प्रतिफल के रूप में किसी निश्चित फल की कामना करना ) से युक्त होते हैं, तो वे कर्म क्षय अथवा निर्वाग का कारण न होकर बन्धन का ही कारण बनते हैं, चाहे वह सुखद १. इसिभा सयं सुत्त, ६।२. २. समयसार, १४५-१४६. ३. प्रवचनसारटीका, ११७२. ४. समयसारटीका. पृ० २०७. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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