Book Title: Jain Karm Siddhant ka Tulnatmaka Adhyayan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 52
________________ कर्म का अशुभत्व शुभत्व एवं शुद्धत्व ४३ दृष्टि है, वही नैतिक कर्मों का सृष्टा है ।" दशवैकालिकसूत्र में कहा गया है कि समस्त प्राणियों को जो अपने समान समझता है और जिसका सभी के प्रति समभाव है वह पाप कर्म का बन्ध नहीं करता । सूत्रकृतांग के अनुमार भी धर्म-अधर्म ( शुभाशुभत्व ) के निर्णय में अपने समान दूसरे को समझना चाहिए। सभी को जीवित रहने की इच्छा है । कोई भी मरना नहीं चाहता। सभी को अपने प्राण प्रिय हैं । सुख अनुकूल है और दुःख प्रतिकूल है । इसलिए वही आचरण श्रेष्ठ है, जिसके द्वारा किसी भी प्राण का हनन नहीं हो । " बौद्ध दर्शन का दृष्टिकोण गया बौद्ध दर्शन में भी सर्वत्र आत्मवत् दृष्टि को ही कर्म के शुभत्व का आधार माना । सुत्तनिपात में बुद्ध कहते हैं कि जैसा मैं हूँ वैसे ही ये दूसरे प्राणी भी हैं और जैसे दूसरे प्राणी हैं वैसा ही मैं हूँ, इस प्रकार सभी को अपने समान समझकर किसी की हिमाया घात नहीं करना चाहिए ।" घम्मपद में भी यही कहा है कि सभी प्राणी दण्ड से डरते हैं, मृत्यु से सभी भय खाते हैं, सबको जीवन प्रिय है; अतः सबको अपने समान समझकर न मारे और न मारने की प्रेरणा करे । सुख चाहनेवाले प्राणियों को अपने सुख की चाह से जो दुःख देता है वह मरकर सुख नहीं पाता । लेकिन जो सुख चाहनेवाले प्राणियों को अपने सुख की चाह से दुःख नहीं देता वह मरकर सुख को प्राप्त होता है । हिन्दू धर्म का दृष्टिकोण मनुस्मृति, महाभारत तथा गीता में भी हमें इसी दृष्टिकोण का समर्थन मिलता है। गीता में कहा गया है कि जो सुख और दुःख सभी में दूसरे प्राणियों के प्रति आत्मवत् दृष्टि रखकर व्यवहार करता है वही परमयोगी है । महाभ रत में अनेक स्थानों पर इस विचार का समर्थन मिलता है । उसमें कहा गया है कि जैसा अपने लिए चाहता है वैसा ही व्यवहार दूसरे के प्रति भी करे ।" त्याग दान, सुख-दुःख, प्रिय अप्रिय सभी में दूसरे को अपनी आत्मा के समान मानकर व्यवहार करना चाहिए । जो व्यक्ति दूसरे प्राणियों के प्रति अपने जैसा व्यवहार करता है वही स्वर्ग १. अनुयोगद्वारसूत्र, १२६. २. दशवैकालिक, ४ ९. ३. सूत्रकृर्ताग, २ २४, पृ० १०४. ४. दशवैकालिक, ६।११. ५. सुत्तनिपत, ३७ २७. ६. धम्मपद, १२९, १३१, १३२. ७. गीता, ६।३२. ८ महाभारत शांति पर्व, २५८ २१. ६. महाभारत अनुशासन पर्व, ११३६ - १०. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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