Book Title: Jain Karm Siddhant ka Tulnatmaka Adhyayan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 42
________________ कम-सिद्धान्त अनुसार लोकहित में भी स्वार्थ-बुद्धि होती है, अतः लोकहित के कार्य प्रशंसनीय नहीं माने जा सकते । यद्यपि यह सत्य है कि कर्म-सिद्धान्त में आस्था रखने पर लोकहित में भी स्वार्थबुद्धि हो सकती हैं और इस आधार पर व्यक्ति का लोकहित का कर्भ प्रशंसनीय नहीं माना जा सकता । स्वार्थ-बुद्धि से किये गये लोकहित कर्मों को भारतीय आचार दर्शनों में भी प्रशंसनीय नहीं कहा गया है, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि उनमें लोकहित का कोई स्थान नहीं है । भारतीय आचारदर्शनों में तो निष्काम-बुद्धि से किया गया लोकहित ही सदैव प्रशंसनीय माना गया है। ___ इस प्रश्न पर पारमार्थिक और व्यावहारिक दृष्टि से भी विचार कर लिया जाय । यद्यपि पारमार्थिक दृष्टि से भारतीय आचारदर्शन अपने कर्म-सिद्धान्त के द्वारा यह अवश्य स्वीकार करते है कि व्यक्ति किसी भी दूसरे का हित-अहित नहीं कर सकता, लेकिन व्यावहारिक दृष्टि से या निमित्त कारण की दृष्टि से यह अवश्य माना गया है कि व्यक्ति दूसरे के सुख-दुःख का निमित्त कारण बन सकता है और इस आधार पर उसका लोक-हित प्रशंसनीय भी माना जा सकता है। व्यावहारिक नैतिकता की दृष्टि से लोकहित का महत्त्व भारतीय आचारदर्शनों में स्वीकृत रहा है। डॉ० दयानन्द भार्गव के शब्दों में आध्यात्मिक आत्मसाक्षात्कार, न कि समाजसेवा, जीवन का परम साध्य है; लेकिन समाजसेवा आध्यात्मिक आत्मसाक्षात्कार की सीढ़ी का प्रथम पत्थर ही सिद्ध होती है। ५. मैकेंजी के विचार में कर्म-सिद्धान्त के आधार पर मानव जाति की पीड़ाओं एवं दुःखों का कोई कारण नहीं बताया जा सकता ।२ इस आक्षेप का समाधान यह है कि कोई भी कार्य अकारण नहीं हो सकता । उसका कोई न कोई कारण तो अवश्य ही मानना पड़ेगा । यदि मानवता की पीड़ा का कारण व्यक्ति नहीं है तो या तो उसका कारण ईश्वर होगा या प्रकृति । यदि इसका कारण ईश्वर है तो वह निर्दयी ही सिद्ध होगा और यदि इसका कारण प्रकृति है तो मनुष्य के सम्बन्ध में यान्त्रिकता की धारणा को स्वीकार करना होगा। लेकिन मानव व्यवहार के यान्त्रिकता के सिद्धान्त में नैतिक और जीवन के उच्च मूल्यों का कोई स्थान नहीं रहेगा । अतः मानवता की पीड़ा का कारण व्यक्ति को ही मानना पड़ेगा । समग्र मानवता की पीड़ा का कारण प्रत्येक याक्ति स्वयं ही है । जैन-विचारणा में इस सम्बन्ध में सामुदायिक कर्म की धारणा को स्वीकार किया गया है जिसका बन्धन और विपाक दोनों ही समग्र समाज के सदस्यों को एक साथ होता है । यही एक ऐसी धारणा है जो इस आक्षेप का समुचित समाधान कर सकती है। १. जैन ऐथिक्स, पृ० ३०. २. वही, पृ० २७. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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