Book Title: Jain Hiteshi 1920 Ank 06
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 6
________________ २५४ जैनहितैषी [भाग १४ लगता है । नियमोंका उल्लंघन ही पाप है। रक्षा करना है, न कि नाश करना । जीवन मनुष्य अज्ञानतासे नियमोंका उल्लंघन करते हैं। छोटे जीवोंकी रक्षासे सफल होता है उनके जो पाप है वहीं क्लेश है । एक पापके बार बार नाशसे नहीं। करनेसे उसका फल अर्थात् क्लेश बारंबार भोगना जीवन सब एक है । छोटेसे छोटा प्राणी पड़ता है और बारंबार कष्ट भोगनेसे उस निय- महत्से महत् प्राणीसे केवल शक्ति और बुद्धिकी मका ज्ञान हो जाता है और जब ज्ञान हो न्यूनाधिकतामें भिन्न है, नहीं तो सब प्राणी जाता है तो सहानुभूतिके पवित्र और सुन्दर एक हैं । जब हम दया और रक्षा करते हैं तो कुसुम खिल उठते हैं। हमारा ऐश्वर्य और हर्ष बढ़ता है और प्रकट सहानुभूतिका अंश दया है। संसारमें दुःखित होता है। इसके विपरीत जब हम अविवेकता और क्लिष्टोंका दुःख दूर करनेके लिये और और कठोरतासे प्राणियोंको दुःख और क्लेश उनको धैर्य दिलानेके लिये दयाकी बड़ी आव- पहुंचाते हैं तो हमारा ऐश्वर्य आच्छादित होता.. श्यकता है । “दया अशक्तोंके लिये संसारको और हर्ष बुझ जाता है। एक प्राणीका दूसरा कोमल बनाती है, और शक्तिमानोंके लिये प्राणी चाहे आहार करे, और एक उद्वेग चाहे संसारको उन्नत बनाती है।" - दुसरे उद्वेगको नष्ट करे; परन्तु मनुष्यकी क्रूरता, अकृपा, दोषारोष और क्रोधको हटा- सात्विक प्रकृति केवल दया, प्रेम, सहानुभूति नेसे दया बढ़ती है। जो मनुष्य किसी पापीको और स्वार्थशून्य पवित्र कर्मोसे ही वृद्धिङ्गत, पापका फल पाते देखकर अपने हृदयको कठोर सुरक्षित और परिपक्क होती है। करता है और कहता है कि "यह अपने उचित दूसरों के प्रति सहानुभूति रखनेसे हम अपने पापोंका फल पा रहा है" वह दया नहीं लिये दूसरोंकी सहानुभूति बढ़ाते हैं । किसीके कर सकता है । मनुष्य जब जब प्राणियोंपर साथ की हुई सहानुभूति नष्ट नहीं होती। कमीकठोरता करता है और उन पर आवश्यक सहा- नेसे कमीना प्राणी भी सहानुभूतिके स्वर्गीय नुभूति प्रकट नहीं करता है, तब तब ही वह स्पर्शसे भला मानेगा, क्यों कि सहानुभूति एक अपनेको संकीर्ण बनाता, अपने आनन्दको न्यून ऐसी विश्वव्यापक भाषा है । जिसको सब प्राणी करता और क्लेश भोगनेके बीज बोता है। समझते हैं। अमेरिकाके डारटमूर नगरमें एक सहानुभूतिका दूसरा अंश यह है कि अपनी अत्यंत अत्याचारी अपराधी मनुष्य था जिसको अपेक्षा दूसरोंकी अधिकतर सफलता देखकर हर्ष कितने ही अपराधोंके कारण चालीस वर्षसे भी मनाना और समझना कि उनकी सफलता मेरी ऊपर तक कई नगरोंमें कैद रहना पड़ा था। ही है । निस्सन्देह वह मनुष्य धन्य है जो उसको सब लोग बहुत भयानक, कठोर और ईर्ष्या, द्वेष और कुढ़नसे मुक्त है और जो उन अन्यायकारी समझते थे और कारागारोंके पहरेलोगोंके शुभ समाचार सुनकर-जो उसको दार इत्यादि उसके सुधारकी कोई आशा नहीं अपना वैरी समझते हैं-हर्षित होता है। रखते थे। एक दिन जिस कोठरीमें वह रक्खा अपनेसे न्यूनतर और हीनतर प्राणियोंकी जाता था वहाँ एक गरीब भूखा और अस्वस्थ रक्षा करना भी सहानुभूतिका एक अंश है। चूहा आ निकला । उसकी असहाय और दुर्बल बेजबान जानवरोंकी रक्षाके लिये बड़ी गहरी दशाको देखकर उस पापीके भी हृदयमें दयाकी सहानुभूतिकी आवश्यकता है । शक्तिकी शोभा बिजलीका संचार हो गया और वह अपनी और Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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