Book Title: Jain Hiteshi 1920 Ank 06
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 18
________________ जैनहितैषी [भाग १४ विद्यावतीकी मृत्युके सम्बन्धमें बाबू साहबका विद्यावती-वियोग। जो पत्र आया है, उसे पढ़ कर हृदय भर आता है। वे लिखते हैं-“विद्यावतीकी यादसे + छाती भर भर आती है । उसकी इस दो ढाई रात्रिर्गमिष्यति भविष्यति सुप्रभातं वर्षकी छोटी अवस्थामें, बड़े आदमियों जैसी भास्वानुदेष्यति हसस्यति पङ्कजश्रीः। समझकी बातें, सबके साथ 'जी' की बोली, इत्थं विचिन्तयति कोषगते द्विरेफे, दयापरणति, उसका सन्तोष, उसका धैर्य और हा हन्त हन्त नलिनी गजमुज्जहार ॥ उसकी अनेक दिव्य चेष्टायें अपनी अपनी -भतृहरि। स्मृतिद्वारा हृदयको बहुत ही व्यथित करती हैं। पाठक यह जान कर अवश्य दुखी होंगे वह कभी साधारण बच्चोंकी तरह व्यर्थकी जिद्द कि हितैषीके सुयोग्य सम्पादक सज्जनोत्तम करती अथवा रोती-रड़ाती हुई नहीं देखी गई। बाबू जुगलकिशोरजीकी एकमात्र शिशुकन्या ऐसी बीमारीकी हालतमें भी कभी उसके कूल्हने विद्यावती गत ता० २८ जूनको एकाएक या कराहने तककी आवाज नहीं सुनी गई, देहान्त हो गया । विद्यावती अभी लगभग बल्कि जब तक वह बोलती रही और उससे ढाई वर्षकी ही थी । ७ दिसम्बर सन् १९१७ पूछा गया कि तेरा जी कैसा है तो उसने बड़े को उसका जन्म हुआ था और जन्मसे प्रायः धैर्य और गाम्भीर्यके साथ यही उत्तर दिया कि सवा तीन महीने बाद ही, १६ मार्च सन् १९१८ 'चोखा है। ' वितर्क करने पर भी इसी आशको उसकी माताका देहान्त हो गया था, इससे यका उत्तर पाकर आश्चर्य होता था ! स्वस्थाउसका पालन-पोषण एक धाय रख कर कराया वस्थामें जब कभी कोई उसकी बातको ठीक गया था । लड़की इतनी गुणवती और होन- नहीं समझता था या समझनेमें कुछ गलती हार थी कि उसके बाल्यसुलभ क्रीड़ा कौतुकोंमें करता था तो वह बराबर उसे पुनः पुनः कहबाबू साहब अपनी सहधर्मिणीक वियोगजन्य कर या कुछ अते-पतेकी बातें बतलाकर समझाकष्टको भूल गये थे । मोहवश उन्होंने उससे नेकी चेष्टा किया करती थी और जब तक वह बड़ी बड़ी आशायें बाँध रक्खी थीं और उन यथार्थ बातको समझ लेनेका इजहार नहीं कर दुर्बल आशातन्तुओंके आधार पर वे अपने देता था तब तक बराबर 'नहीं' शब्दके कठोर भविष्यको गढ़ रहे थे; परन्तु मनुष्य द्वारा उसकी गलत बातोंका निषेध करती रहती सोचता कुछ है और हो कुछ और ही जाता थी। परन्तु ज्यों ही उसके मुंहसे ठीक बात है। दुर्भाग्यके एक ही झकोरेसे वे आशातन्तु निकलती थी तो वह 'हाँ' शब्दको कुछ ऐसे टूट गये विद्यावतीका प्राण-पखेरू उड़ गया लहजेमें लम्बा खींच कर कहती थी, जिससे ऐसा और भविष्यकी कठोरता भीषणरूपमें स्पष्ट मालूम होता था कि उसे उस व्यक्तिकी समझ हो गई! पर अब पूरा संतोष हुआ है । वह हमेशा सच Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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