Book Title: Jain Hiteshi 1920 Ank 06
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 19
________________ अङ्क ९ ] बोलती थी और अपने अपराधको खुशीसे स्वीकार कर लेती थी । विद्यावतीके ऊपर मैंने बहुतसी आशायें बाँध रक्खी थीं और अनेक विचारोंको कार्यमें परिणत करनेका उसे एक आधार समझ रक्खा था ! मेरी हमेशा यह कोशिश रहती थी कि उसकी स्वाभाविक इच्छाओंका विघात न होने पावे और अपनी तरफसे कोई ऐसा कार्य न किया जाय, जिससे उसकी शक्तियों के विकाशमें किसी प्रकारकी बाधा उपस्थित हो या उसके आत्मा पर कोई बुरा संस्कार पड़े । मैं उसे एक आदर्श कन्या और स्त्रीसमाजका उद्धार करनेवाली एक आदर्श स्त्रीके रूपमें देखना चाहता था । परन्तु मेरा इतना भाग्य कहाँ कि वह दिव्यमूर्ति मेरी आँखोंके सामने रह कर मुझे कुछ शान्ति, तृप्ति तथा धैर्य प्रदान करती और इस तरह मेरे भी दिलके कुछ अरमानोंको निकलनेका अवसर मिलता ! अब सब बातें कोरी ख्वाबखयाल तथा स्वमजाल हो गई हैं, अथवा कहानी मात्र रह गई हैं । अब विद्यावतीकी सूरत दुर्लभ हो गई ! वह ऐसी जगह नहीं गई जहाँसे जल्दी लौट आयगी ! उसे मैंने अपनी आँखों के सामने चिता पर भस्म होते देखा है !! मुझे नहीं मालूम था कि वह इतनी थोड़ी आयु लेकर आई है ! " विविध-प्रसङ्ग । सूझ नहीं पड़ता कि बाबू साहबको किस तरह समझाया जाय और किस तरह धैर्य बँधाया जाय । सच मुच यह दुःख दुःसह है और इसे सहन करने के लिए बड़ी शक्ति चाहिए । हमारी एकान्त कामना है कि जिनेन्द्रदेवका शासन उन्हें वह शक्ति प्रदान करे । Jain Education International . विविध प्रसङ्ग । १- वैद्यजीका तर्क । जैनमित्रके गत २९ अप्रेलके अंकमें किसी अज्ञातनामा वैद्यजीने, घूँघट निकालकर, जैनहितैषी और सत्योदयसे स्त्रीपुरुषों की समानता पर कुछ प्रश्न किये हैं । यद्यपि इन प्रश्नोंका जैनहितैषी से कोई खास सम्बन्ध नहीं, हितैषीने कभी स्त्रीपुरुषोंके सर्वथा समान होनेका प्रतिपा"दन नहीं किया और इस लिये वह उनका उत्तर देना अपने लिये कोई जरूरी नहीं समझताउन सब प्रश्नों का उत्तर उन्हें किसी वैद्य, हकीम या डाक्टर आदि की सेवा करनेसे ही प्राप्त होगातो भी जैनहितैषी संक्षेप में इतना जरूर कहना चाहता है कि “ स्त्री पुरुष अनेक अंशों में परस्पर समान हैं और अनेक अंशोंमें समान नहीं हैं । अर्थात्, वे समान भी हैं और असमान भी। दोनों एक नहीं हैं - स्त्री स्त्री है और पुरुष पुरुष है । रही रीतिरिवाजों पर उनके अधिकारकी बात, सो रीतिरिवाज सदा एक अवस्थामें नहीं रहा करते- उनमें देशकालानुसार बराबर परिवर्तन हुआ करता है, परिवर्तन पाया जाता है " और इस लिये उनके आधार पर किसी विषका कोई अटल सिद्धान्त नहीं बन जाता । परंतु इन प्रश्नोंके अनन्तर ही वैद्यजीने कुछ पंक्तियाँ दी हैं, जिनसे आपके नये तर्कशास्त्रका परिचय मिलता है । वे पंक्तियाँ इस प्रकार हैं: देकर सिद्ध करें कि पुरुष " यदि उक्त प्रश्नोंके १६७ और स्त्री समान है तो महानुभाव सयुक्तिक उत्तर उनकी बातें सच हैं नहीं तो लोगोंको धोखा देने के - नाथूराम प्रेमी । लिये जाल हैं— बिलकुल झूठ हैं । " For Personal & Private Use Only पाठको, देखा, कैसा बढ़िया युक्तिवाद है ! शायद आपको किसी भी न्यायशास्त्रमें इससे www.jainelibrary.org

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