Book Title: Jain Hiteshi 1920 Ank 06
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 26
________________ २७४ जैनहितैषी . [भाग १४. १०-आँखें बंद कर लो, देखो मत ! सकता तो अब उससे भी वंचित हो जाता है और अपनेको अनायास ही दूसरोंके हाथोंमें कलकत्तेकी दिगम्बर जैनसभाको ‘सत्योदय' समर्पण कर देता है। ठीक ऐसी ही दशा, और 'जातिप्रबोधक' से बड़ा भय मालूम इस समय, कलकत्ता जैनसभाके सभासदों होता है। उसकी श्रद्धा-कुटी इन पत्रोंके वाग्वा और उनके अनुयायियोंकी जान पड़ती है, वे णोंसे छिन्न भिन्न हुई जाती है; नहीं नहीं, बल्कि भी किंकर्तव्यविमूढ मालूम होते हैं और इनके हुंकार मात्रसे उड़ी जाती है ! उसे अपने समीपमें स्थित जैनधर्म इतना लचर और पोच इसी कबूतर जैसी नीतिका अनुसरण किये हुए हैं। परंतु वीरपुरुषोंकी ऐसी नीति नहीं दिखलाई देता है कि वह इन पत्रोंकी कुटिल हुआ करती, वे आक्रमणकारीके मुकाबले में दृष्टिके सामने ठहर नहीं सकता ! साथ ही, उसे खम ठोककर आते हैं। आँखें बंद कर लेना यह भी अनुभव हुआ जान पड़ता है कि दूसरे या पीठ देकर बैठ रहना, यह कायरों तथा काजैनी भाईयोंकी श्रद्धा-कुटियोंकी हालत भी उसी जैसी है-वे भी फूंक मारते ही उड़ जानेवाली हैं। पुरुषोंका चिह्न है । और इस लिये, जो लोग और इस लिये उसने अपनी, जैनधर्मकी, और ऐसा आचरण करते हैं वे संसारमें अपनी निर्बलता अपने दूसरे जातिभाईयोंकी रक्षाके लिये एक और अकर्मण्यताको सर्वसाधारणके सामने उन्न बहुत बड़ा रामबाण उपाय खोज निकाला है, स्वरसे उद्घोषित करते हैं । जान पड़ता है कलऔर वह आँखें बंद कर लेना है ! इसीसे वह । कत्तेकी उक्त सभाको जैनधर्म पर विश्वास नहीं दूसरोंको भी यही उपदेश देती है अथवा आदेश है अथवा उसने जैनधर्मका वास्तविक स्वरूप करती है कि 'आँखें बंद कर लो देखो मत' ' नहीं समझा और न उसके रहस्यका ही उसे कुछ अर्थात्, इन पत्रोंको मत पढ़ो ! उसके खयालसे बोध है । वह कुछ अस्थिर रूढ़ियोंके समूहको ही इसीमें सारा रक्षातत्त्व छिपा हुआ है। परंतु जैनधर्मका शरीर कल्पित किये हुए है और हमारी समझमें यह तो वही बात हुई कि जैसे इसीसे जैनधर्म उसे इतना लचर तथा पोच दिखकिसी बिलावको सामनेसे आता हुआ देख लाई देता है कि उसके चलायमान हो जानेकी एक कबूतर उसके तेजको न सह सकनेके . उसके हृदयमें हर वक्त आशंका बनी रहती है ! कारण किंकर्तव्यविमूढसा होकर अपनी आँखें " नहीं तो, मूल जैनधर्मकी दीवारें ऐसी वज्रकी बंद करके बैठ जाता है और समझता है । बनी हुई हैं और इतने मजबूत तथा सुदृढ पायेके कि इस तरह मेरी रक्षा हो जायगी-मैं उसे . ऊपर खड़ी हैं कि उन्हें जरा भी कोई हिला नहीं देखता तो मानों वह भी मुझे नहीं देखता-' ", नहीं सकता । परंतु खेद है कि सभाको इसका परंतु पाठक समझ सकते हैं कि क्या इस . 6 कुछ भी अनुभव नहीं है । यदि सभा जैनधर्मके " .वास्तविक स्वरूपको जानने, उसके रहस्यको तरह पर उस कबूतरकी रक्षा हो जाती है ? .. कभी नहीं । आँखें खुली रहनेकी हालतमें यदि समझनेकी कोशिश करे और साथ ही समय पर ___ अपनी आत्मशक्तियोंका यथार्थ प्रयोग करना वह उड़-उड़ाकर अपनी कुछ रक्षा कर भी सीखे तो उसके लिये भयका कोई स्थान न रहे १ इस विषयका जो प्रस्ताव उक्त सभाने पास और न फिर, व्यर्थकी घबराहटसे उत्पन्न हुए, किया है उसे हमने अपने विचारोंके साथ अन्यत्र इस प्रकारके निष्फल तथा हानिकर प्रयत्नों द्वारा प्रकाशित किया है। उसे विद्वत्समाजमें हँसीका ही पात्र बनना पड़े। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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