Book Title: Jain Hiteshi 1920 Ank 06 Author(s): Nathuram Premi Publisher: Jain Granthratna Karyalay View full book textPage 5
________________ अङ्क९) सहानुभूति । २५३ कता है । जो जितना अधिक पापी है वह पापोंको और उनसे जो जो दुःख और क्लेश उतना ही अधिक दुःखी है, इसलिये उसको समुपस्थित होते हैं उनको. जानता है । वह सहानुभूतिकी भी उतनी ही अधिक आवश्यकता निद्रासे जाग कर, ज्ञानका प्रकाश प्राप्त कर है। महात्मा क्राइस्टने कहा है-“मैं पुण्या- और स्वार्थताको छोडकर सबको जैसे वे हैं त्माओंको नहीं बल्कि पापियोंको पश्चात्ताप वैसे देखता है और उन सबसे पवित्र सहानुभूति कराने आया हूँ ।" पुण्यात्माओंको तुम्हारी रखता है । ऐसे मनुष्यको यदि लोग दोष लगाते सहानुभूतिकी आवश्यकता नहीं, केवल पापि- हैं, उसकी बुराई करते हैं या उससे घृणा करते योंको है । जो दूषित कर्मोंसे बहुत समय तक हैं, तो वह बुराईके बदले उनके साथ सहानुभूति दुःख और क्लेश उठानेके लिये पाप संचय कर प्रकट करता है और विचार करता है कि ये मनुष्य रहा है उसीको सहानुभूतिकी आवश्यकता है। अपनी अज्ञानताके कारण मुझसे घृणा करते हैं, - एक प्रकारका पाप कर्म करनेवाला दूसरे इन्हें अपने बुरे कर्मोंका फल भोगना पड़ेगा। प्रकारके पाप करनेवालेको बुरा, अपराधी और आत्मदमन और ज्ञानवृद्धिके द्वारा जो तुमसे अधम बताता है । वह यह नहीं सोचता कि घृणा करें उनसे स्नेह करना सीखो । उनके मेरे और उसके पाप यद्यपि भिन्न प्रकारके हैं, बुराई करनेकी ओर दृष्टि न डालो, प्रत्युत अपने परन्तु अन्तमें वे हैं पाप । वह यह नहीं देखता मनको टटोलो; कदाचित् तुम्हारे मनमें भी कोई कि सर्व प्रकारके पाप एक ही हैं, केवल उनके रू- बुरी बात होगी । यदि तुम अपने दोषों और पोंमें अन्तर है । मनुष्य स्वयं जितना पापी है उतना अपराधोंको समझ लोगे तो दूसरोंकी निन्दा ही दूसरोंको पापी ठहराता है । जब उसको करना छोड़कर अपने आपको धिक्कारने लगोगे। सद्ज्ञान होता है और वह अपने पापसे मुँह साधारण प्रकारसे जिसको सहानुभूति कहते फेरता है तथा उससे बचनेका यत्न करने लगता हैं वह सहानुभूति नहीं है, किन्तु वह एक प्रकाहै, तब दूसरोंको भी पापी बतानेसे रुकने लग रका शारीरिक स्नेह है । जो हमसे स्नेह-करे जाता है और उनके साथ सहानभति जताने उससे हम भी स्नेह करें. यह एक मानषिक स्वभाव लगता है। परन्तु यह एक अटल सांसारिक और प्रकृति है। परन्त जो हमसे स्नेह नहीं करें 'नियम है कि इन्द्रियोंके वशीभूत पापी मनुष्य उनसे हम स्नेह करें, यह पवित्र सहानुभूति है । आपसमें एक दूसरेको दूषित समझते हैं और सहानुभूतिकी आवश्यकता दुःख और क्लेशके घृणा करते हैं । वह मनुष्य-जिसको सब बुरा कारण है । क्योंकि ऐसा कोई प्राणी नहीं है और दोषी बताते हैं और जिससे घृणा करते हैं- जिसको दुःख न हुआ हो । दुःखहीसे सहानुयदि उन लोगोंके धिक्कारनेको अच्छा समझे और भूति उत्पन्न हुई है । एक वर्ष या एक ही जीवविचार करे कि मेरे अपराधोंके कारण वे मुझे बुरा नमें मानुषिक हृदय दुःख पाकर पवित्र और बताते हैं तो उसकी उन्नति होने लगती है और स्वच्छ नहीं बन सकता, किन्तु बारंबार जन्म वह स्वयं दूसरोंकी बुराई करना छोड़ देता है। लेकर और दुःख पाकर ही मनुष्य अपने अनु___ जो वास्तवमें सच्चा और भला मनुष्य है वह भवोंकी सुनहरी फसलको काटता है और प्रेम दूसरोंकी निन्दा नहीं करता। ऐसा मनुष्य और ज्ञानकी परिपक्क और अमूल्य फलियाँ प्राप्त स्वार्थता और अन्धे उद्वेगको दूर रख कर प्रेम करता है । इस प्रकार जन्मजन्मान्तरके पश्चात् और शान्तिके साथ रहता है और सर्व प्रकारके वह समझने लगता है और सहानुभूति रखने Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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