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जैनहितैषी
[भाग १३
इसे ही सामने रख कर लिखा गया हो । इसमें * पेणमहजिशवरवसहं, गणहरवसहं तहेव गुणवसहं ।। 'सामान्य जगत्स्वरूप, नारकलोकस्वरूप, भवन- दहूण परिसवसह जदिवसहं धम्मसुत्तपाढए वसह॥८॥ वासी, मनुष्यलोक, तिर्यक्लोक, व्यन्तरलोक, चुण्णिसरूव छक्करणसरूवपमाण होदि किं जत्तं । ज्योतिर्लोक, सुरलोक और सिद्धलोक नामके ९ अहसहस्सपमाणं तिलोयपण्णत्तिणामाए ॥ ८१॥ महा अधिकार या अध्याय हैं। प्रत्येक अध्यायके । एवं आइरियपरंपरागय तिलोयपण्णात्तिए सिद्धोभीतर छोटे छोटे और भी अनेक अध्याय हैं। लोयसरूवनिरूवणपण्णत्तीणाम णवमो महाहियारो
सम्मत्तं । - इस ग्रन्थकी प्रारंभिक गाथा यह है
मग्गप्पभावणठं पवयणभत्तिपबोधिदेण मया। अविहकम्मवियला णिट्ठियकज्जा पणइसंसारा। भणिदं गंथं पवरं सोहंतु बहुस्सुदाइरिया ॥ दिवसयलहसारा सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु ॥१॥
- तिलोयपण्णत्ती सम्मत्ता। इसके बाद चार गाथाओंमें अरहंत, आचार्य, इनमेंसे पहली माथासे हमें यह मालूम होता उपाध्याय और साधुओंको नमस्कार किया है। है कि यह ग्रन्थ यतिवृषभाचार्यका बनाया हुआ फिर एक बड़ी लम्बी पीठिकादी है, जिसमें मंगल, ह
है। ये यतिवृषभ आंचार्य वही हैं, जिनका
' उल्लेख इन्द्रनन्दिकृत श्रुतावतारमें किया गया कारण, हेतु, आदि बातों पर खूब विस्तारसे में
है और जिन्हें कषायप्राभूतनामक द्वितीय विचार किया है। उसके अन्तमें लिखा है:
श्रुतस्कन्धके चूर्णिसूत्रोंका कर्ता बतलाया हैसासदपदमावण्णं पवाहरूवत्तणेण दोसेहिं ।
पार्श्वे तयोर्द्वयोरप्यधीत्य सूत्राणि तानि यतिवृषभः । णिस्सेसेहिं विमुकं आइरियअणुक्रमााद ॥ ८६ ॥ यतिवृषभनामधेयो बभूव शास्त्रार्थनिपुणमतिः ॥१५५॥ भव्वजणाणंदयरं वोच्छामि अहं तिलोयपण्णत्ती। तेन ततो यतिपतिना तद्गाथावृत्तिसूत्ररूपेण । णिज्जरभत्तिपसादिदवरगुणचरणाणुभावेण ॥ ८७॥ रचितानि षट्सहस्रग्रन्थान्यथ चूर्णिसूत्राणि ॥ १५६ ॥
इसमें त्रिलोकप्रज्ञप्तिको, भव्यजनानन्द- अर्थात् “ गुणधर आचार्यने कषायप्राभूत कारिणी. प्रवाहरूपसे शाश्वती. निःशेषदोष- सूत्रके व्याख्यानको जिन नागहस्ति और आर्यरहित और आचार्योंकी परम्पराद्वारा चली मेक्षु मुनियोंके लिए लिखा था, उन दोनोंके पास आई, ये विशेषण दिये हैं और कहा है कि
यतिवृषभ नामके श्रेष्ठ यतिने उसे पढ़ा और
फिर उसपर छह हजार श्लोकप्रमाण चूर्णि: इसे मैं देवपूज्य श्रेष्ठ गुरुओंके चरणोंके प्रभावसे
सूत्र लिखे । " पूर्वोक्त गाथामें यतिवृषभको जो कहता हूँ।
'धर्मसूत्रपाठकवृषभं' (धर्मसूत्रोंके श्रेष्ठ पाठक) आगे ग्रन्थान्तमें कुन्थुनाथसे लेकर वर्द्धमान विशेषण दिया है, उससे भी इस बातकी पुष्टि तक आठ * तीर्थंकरोंको, पंचपरमेष्ठीको, और * संस्कृतछायाफिर चौवीस तीर्थंकरोंको नमस्कार करके नीचे प्रणमत जिनवरवृषभं गणधरवृषभं तथैव गुणवृषभं । लिखी गाथायें देकर ग्रन्थ समाप्त किया है:- दृष्ट्वा परिषवृषभं यतिवृषभं धर्मसूत्रपाठकवृषभं ॥८०
--- चणिस्वरूपं षट्करणस्वरूपप्रमाणं भवति किं यत् तत् । * प्रारम्भके १६ तीर्थंकरोंका स्तवन पहले आठ अष्टसहस्रप्रमाणं त्रिलोकप्रज्ञप्तिनाम्न्यः ॥ ८१ ॥ अधिकारोंके प्रारंभ और अन्द्रमें क्रमानुसार किया मार्गप्रभावनार्थं प्रवचनभक्तिप्रबोधितेन मया । गया है।
भणितं. ग्रन्थप्रवरं शोधयन्तु बहुश्रुताचार्याः ॥ ८२ ॥