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जैनहितैषी -
प्राणीका कर्तव्य प्रथम है, निजकुलको विस्तृत करना,
कभी स्वप्न में भी विघ्नोंसे, नहीं चाहिए सुप्त, डरना । अपने संकल्पित कामोंको, जो करते हैं बूझ विचार,
सभी अवस्थाओं में उनके, हो जाते हैं बेड़े पार ॥ १४ ॥ जलमें जलज बना रहता है, पर रखता संपर्क नहीं,
वैसे सुधी गृही बनते हैं, व्यर्थ करो तुम तर्क नहीं । अपने कार्य किसे सौंपोगे, यदि होगी सन्तान नहीं,
विना ब्याह किये तुम्हारा, सुत, होगा कल्याण नहीं ॥ १५ ॥ जैसे होगा ब्याह तुम्हारा, अपनी आँखों देखूँगी,
पुत्रवधू पाकर अपनेको, पुत्रवती मैं लेखूँगी । जीते होते पिता तुम्हारे, तब होता यदि ब्याह नहीं,
हरिसेवक, तो मेरे मनमें, कुछ भी होती दाह नहीं ॥ १६ ॥ सभी कहेंगे पितृ-हीनका, क्यों कर हो सकता है ब्याह,
ऐसी बातें सुन कर बेटा, प्रतिपल भरा करूँगी आह । इसी लिए मेरे कहनेसे, हर्षित हो निज ब्याह करो,
देशभक्ति में नहीं रुकावट होगी, मनमें नहीं डरो ॥ १७ ॥ नहीं नहीं मा, भूल रही हो, मेरी बात जाइए मान,
धर्म-विरुद्ध कार्य मत करिए, कहिए कहाँ गया है ज्ञान ? धन देकर यदि कन्या लोगी, तो वह दासी होवेगी,
फिर उससे जो सन्तति होगी, दोनों कुलको खोवेगी ॥ १८ ॥ दासीसे या दासी - सुतसे, माता, क्या होगा उपकार ?
अपने कुलको स्वयं कलंकित, नहीं कीजिए बूझ विचार । क्वाँरे रहे भीष्म पर तो भी, 'बाबा' बोले जाते थे ।
सबसे बढ़कर सबसे पहले, जगमें आदर पाते थे । १९ ॥ रुपये मत फेंको, मुझको दो, उनसे करूँ विविध व्यापार,
द्रव्य बढ़ाकर सुख भी भोगू, और करूँ जगका उपकार । धन दे करके पाप कमाना, बुद्धिमानका काम नहीं,
विद्या - विभव व्यर्थ हैं उसके, जिसका भू पर नाम नहीं ॥ २० ॥
पशुओंसा नरका भी जगमें, जन्म गवाँना ठीक नहीं,
विषय- लीन हो, पराधीन हो, दुःख उठाना ठीक नहीं । 'कार्य दक्ष जो विपुलवक्ष हो, देश-पक्षमें रहे खड़ा,
वही तनुज है, वही मनुज है, वही विबुध है वही बड़ा ॥ २१ ॥ ब्रह्मचर्य का पालन जिसने किया, किया उसने कुछ काम,
जो नर हो सुख दायक जगको, हुआ उसीका जन्म ललाम । • बालब्रह्मचारी मैं रहकर, भारत-दुःख मिटाऊँगा,
दीन भारतीयोंके कारण, मैं भी मर मिट जाऊँगा ॥ २२ ॥
[ भाग १३