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अङ्क १२
विचित्र व्याह ।
देश मात्रका मैं हूँ, मेरा देश मात्र है मन्त्र यही
मैंने स्थिर कर लिया अम्बिके, इसमें है भ्रम-लेश नहीं । कोटि अनाथा स्त्रियाँ पड़ी हैं, भारतमें अति दीन मलीन,
जीवन भर तन मनसे उनकी, सेवामें होऊँगा लीन ॥ ५ ॥ निःसहाय बहु बालक भी हैं, शिक्षा उन्हें दिलाऊँगा, सोते हुए देशको अपने, करके यत्न जगाऊँगा । वह क्यों अच्छा हो सकता है, जिसने किया न अच्छा काम,
और कीर्तिकारक अवनी पर, जिसने किया न अपना नाम ॥ ६ ॥
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विना दुःख भोगे कैसे दुख, जन्मभूमिका होगा दूर,
प्रतिपल हाय, हिन्दका शोणित, चूस रहे हैं मानव क्रूर । इसी लिए मैं प्राणप्रणसे दैशिक व्रतको पालूँगा,
करके यत्न अविद्या-तमको शीघ्र यहाँसे टालूँगा ॥ ७ ॥ विषय-वासनासे सुन जननी, मिलता है सुख-लेश नहीं,
कभी भोगनेसे इच्छायें, हो सकतीं निःशेष नहीं । इसी लिए कौमार-व्रत भी करना मैंने ठाना है,
जगमें मैंने सबसे अच्छा परोपकृतिको माना है ॥ ८ ॥ प्रतिदिन हा अवनति खन्दकमें, गिरता जाता है यह देश,
प्रथम सुखी था यथा आज त्यों, मोह-विवश पाता है क्लेश । ऐसे समय विषयमें फँसना, बुद्धिमानका काम नहीं,
सुनकर जन्मभूमि- कन्दनको, मिल सकता आराम नहीं ॥ ९ ॥ देश-निवासी दुखसे रोवें, मैं कैसे सुख सोऊँगा,
जान बूझकर अपना जीवन, नहीं अकारथ खोऊँगा । निज- समाज के दैन्य देख भी, जिनमें उगती दया नहीं,
उनका जीना मरना सम है, जिनमें कुछ भी हया नहीं ॥ १० ॥
क्षमा करो माताजी, मुझको, प्रेमसहित दे दो वरदान,
देष- हितैषीके संकटमें, स्वयं सहायक हैं भगवान । शपथसहित सच कहता हूँ, यदि तेरी आज्ञा पाऊँगा,
तो फिर धर्म- मर्म मानवके, करके कर्म दिखाऊँगा ॥ ११ ॥ भाग्यमती है जगमें नारी, जननी, है सुतवती वही,
सती वही, मतिमती वही है, और सुखी गुणवती वही । जिसका तनय विनय से नयसे, देश- वृद्धि के लिए सदा
उद्यत रहता तन, मन, धनसे, स्वत्व - सिद्धिके लिए सदा ॥ १२ ॥
जीते रहो सत्य कहते हो, हरिसेवक, मेरे प्यारे,
देशभक्ति हो अटल तुम्हारी, मेरे नयनोंके तारे । पर मेरी बातोंको मानो, परम पूज्य मुझको मानो,
मेरे कहनेको निज मनमें, शिशुका खेल नहीं जानो ॥ १३ ॥