Book Title: Jain Hiteshi 1917 Ank 12
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 36
________________ mawariM 15 १५० जैनहितैषी [भाग १३ सिद्धान्तकी दृधिसे बिलकुल गिरा हुआ है। महान बीड़ा उठाया है । साथ ही, उनसे यह क्योंकि ज्ञान तथा दर्शन 'क्षायिक' और प्रार्थना भी करते हैं कि, वे भविष्यमें इस बातका "क्षायोपशमिक' इस तरह दो प्रकारका होता है। पूरा खयाल रक्खें कि उनके यहाँसे प्रकाशित इसी प्रकार, ग्रंथके परिशिष्टमें, जो यह लिखा हुए ग्रंथों में इस प्रकारकी भूले न रहने पायें; है कि केवलज्ञानीको कर्मोंका कोई आस्रव नहीं और इस तरह पर उनकी ग्रंथमाला एक आदर्श होता, वह भी जैनसिद्धान्तकी दृष्टिसे ठीक नहीं ग्रंथमाला बनकर अपने उस उद्देश्यको पूरा करे है । क्योंकि सयोगकेवलीके योग विद्यमान जिसको लेकर वह अवतरित हुई है । * होनेसे कर्मोंका आस्रव जरूर होता है। ता० ३-१-१८ अन्तमें हम अपने मित्र श्रीयुत कुमार देवेन्द्रप्रसादजीको हृदयसे धन्यवाद देते हैं, जिन्हान यह समालोचना संपादक जैनहितैषीकी प्रेरणा नग्रथाका इस प्रकार टाकानटप्पणादि- तथा कमार देवेन्द्रप्रसाद के भी इच्छा प्रकट करने सहित, उत्तमताके साथ प्रकाशित करनेका यह पर जनहितैषीके लिए लिखी गई। -लेखक । อมสินสินบนนะสินสินสินบนะ ई विचित्र ब्याह । storrerrariranranraParragenerrermela ( लेखक, पं० रामचरित उपाध्याय।) [गतांकसे आगे] सप्तम सर्ग। एक दिवस माताने सुतसे सकल ब्याह-वृत्तान्त कहा, ____ ध्यानसहित सुनकर उसको वह, बहुत देर तक मौन रहा। फिर सतर्क बोला अति दृढ़ हो, माता, मैं न करूँगा ब्याह, गृह-बन्धनमें फँसनेकी है, मुझमें नहीं तनिक भी चाह ॥१॥ सत्याग्रहसे रह कर मुझको, करना है भारत-उद्धार, मेरे सिर पर लाद न माता, पराधीनताका दुख-भार । यदि अबलाके लिए न चिन्ता, प्रबला होने पावेगी, जन्मभूमि फिर मेरे रहते, कैसे रोने पावेगी ॥२॥ यदि वनिता, सुत, सुता न होवें, तो फिर दुःख सहेगा कौन ? ____ 'हाँ हुजूर' भी अपने मुखसे, खलको हाय कहेगा कौन ? । देवराजसे बढ़कर वह है, पराधीनता जिसे न हो, . देश, जातिका गर्व चित्तमें, मानव होते किसे न हो ? ॥ ३॥ सफल जन्म है उसी मनुजका, जिसने किया देशउपकार, . स्वार्थ-लीन ही रहा सदा जो, उसके जीवनको धिक्कार । सदा स्वतंत्र रहूँगा जगमें, जननी, मैं बस इसी लिए, सत्य मान तू नहीं करूँगा, ब्याह कभी भी किसी लिए ॥४॥

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