Book Title: Jain Hiteshi 1917 Ank 12
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 44
________________ जैनहितैषी [ भाग १३ की बात, सो.उन्होंने अनेक बातोंमें हिन्दू वनाओंमें देखना चाहिए। जैनदर्शनके दिवाकर पुराणोंहीका अनुकरण किया है। हिन्दू पुराणोंमें भी जिस साहित्यके विषयमें बहुत ही बुरी जो कुछ लिखा हुआ था, उसीको इन्होंने चतु- सम्मति देते हैं, वह साहित्य सर्वज्ञोक्त नहीं हो राईसे अच्छी तरह काटछाँटकर, उनकी परस्पर सकता । उसे सर्वज्ञकथित कह कर सर्वज्ञको विरोधिता और असंगतताको निकाल कर सुसं- कलंकित करना है । सर्वज्ञकथित वह स्याद्वाद कलित रूपमें अपने ग्रंथों में उल्लिखित कर दिया। सिद्धान्त है, जिसका कुछ कुछ दर्शन हमें हमारा विद्यमान साहित्य लगभग ४ थी ५ वीं भगवान कन्दकन्द और समन्तभद्रके ग्रन्थोंमें शताब्दिके बादका बना हुआ है और वह समय मिलता है। और यों तो धष्ट ग्रन्थकारोंने भद्रहिन्दुओंके पुराणोंकी लोकप्रियताका था । हिन्दू बाहसंहिता जैसे ग्रन्थोंको भी सर्वज्ञके सिर पर जनतामें पुराणोंका अत्यधिक आदर देखकर मढ़ देनेमें कोई कसर नहीं रक्खी है। अब वह जैन विद्वानोंने भी उन्हींका अनुकरण किया। समय आ गया है कि साहित्यके प्रत्येक अंगकी हिन्दुओंके और जैनोंके पुराणग्रन्थोंका तुल- और प्रत्येक विचारकी अच्छी तरहसे आलोनात्मक दृष्टिसे परस्पर मिलान करनेसे इस चना होनी चाहिए। नहीं तो काचके टुकड़ोंके कथनकी सत्यता विदित हो जायगी । हमें यह साथ बहमल्य मणि भी फेंक दिये जायेंगे और भी न भल जाना चाहिए कि, विद्यमान जैन- जगतकी एक सर्वोत्तम विचारश्रेणी अयुक्तकी धर्मका ढाँचा ठीक वैसा ही नहीं है जैसा भग- संगतिसे उपेक्षित हो जायगी। वान् महावीरदेवने अपने जीवनकालमें स्थिर किया था । इस इतने लम्बे और विपत्तिसंकुल हम कभी पाठकोंको, जैनग्रन्थोंहीके कुछ ढाई हजार वर्ष परिमित कालमें किसी भी धर्म, अवतरणोंसे यह दिखायँगे कि भरतखण्ड उतना राष्ट्र और समाजके स्वरूपमें परिवर्तन न हो, ही है जितनेको कि हम आजकल हिन्दुस्थान यह प्रकृतिके नियमसे सर्वथा असम्भव है। या भारतवर्ष कहते हैं । पृथ्वीके यूरोप, अमेजैनधर्मके मूलस्वरूपका जो धुंधला चित्र वर्त- रिकादि दृश्यमान खण्डोंकी गणना भरतखण्डमें मान जैनसाहित्यसमुद्र में गहरा गोता लगानेसे नहीं की जा सकती । विद्यमान गंगा सिन्धु दिखाई देता है, उसमें हम इन विचारोंका आभा- नदियोंके सिवा और कोई महागंगा महासिन्धु सपा सकते हैं। इन कारणोंसे हमारा अनुमान नदियाँ नहीं हैं, जैसा कि ऊपर दिये गये होता है कि, जो भौगोलिक सिद्धान्त जैनग्रंथोंमें स्वर्गीय बरैयाजीके लेखमें लिखा हुआ है । लिखे हैं, वे सर्वज्ञप्रणीत न होकर पुराणकल्पित भारतीय समुद्र ही लवणसमुद्र है और हिमाहैं । क्यों कि यह सुनिश्चित है कि, सर्वानुभूत लय पर्वत ही हिमवान् है । इनके अतिरिक्त प्रत्यक्ष प्रमाणसे सर्वज्ञका वचन कभी बाधित और कोई नदी, समुद्र पर्वतादि नहीं हैं । नहीं हो सकता । डा. हरमन जेकोबी जो योजनोंके परिमाणमें और संख्याकी गणनामें कुछ समय पहले ‘जैनदर्शनदिवाकर' की भ्रम हो जानेसे ये सब अनाप-शनाप कल्पनायें महती उपाधिसे विभूषित हो चुके हैं-जैनग्र- पैदा हुई हैं । यह भ्रम पुरातनकालके विद्वान्थोक्त ज्योतिषके बारेमें अपनी क्या सम्मति नोंको भी विदित हो चुका था; परंत किसी देते हैं उसे जैनविद्वानोंको 'प्राच्यदेशीय पवित्र कारणवश वे इस भ्रमका निराकरण न कर ग्रंथमाला' द्वारा प्रकाशित जैनसूत्रोंकी प्रस्ता- पाये । पर अब इस बीसवीं शताब्दिके विज्ञान

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