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अङ्क १२
द्रव्यसंग्रह।
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(ग) पृष्ठ ५ पर 'माण्डलिक ग्रंथकार' का (क) पृष्ठ १२ पर गणधरोंको केवलज्ञानी अर्थ 'अन्य समस्त ग्रंथकार' ( all other लिखा है, जो ठीक नहीं। गणधर अपनी उस writers ) किया है जो ठीक नहीं है । मांडः अवस्थामें सिर्फ चार ज्ञानके धारक होते हैं। लिकसे अभिप्राय वहाँ मतविशेषसे है।
(ख ) पृष्ठ १५ पर 'प्रत्यभिज्ञान ' और (घ) प्रस्तावनामें एक स्थान पर, 'सुयोगे हिन्दूफिलासोफीके 'उपमान प्रमाण' को सौभाग्ये मस्तनाम्नि प्रकटित भगणे ) का एक बतलाया है । परंतु स्वरूपसे ऐसा नहीं है। अनुवाद दिया है-When the auspicious प्रत्यभिज्ञानका सिर्फ एक भेद, जिसे सादृश्य Mrigsira star was visible है-अर्थात, प्रत्यभिज्ञान कहते हैं, उपमान प्रमाणके बराबर जिस सभय शुभ मृगशिरा नक्षत्र प्रकाशित था। हो सकता है। इस अनुवादमें 'सुयोगे सौभाग्ये' का कोई (ग) पृष्ठ ३६ पर यह सूचित किया है ठीक अर्थ नहीं किया गया । मालूम होता है कि, जो जीव एक बार निगोदसे निकल कि इन पदोंमें ज्योतिषशास्त्रविहित ‘सौभाग्य' जाता है-उन्नति करना प्रारंभ कर देता है-वह नामके जिस योगका उल्लेख था, उसे अनुवादक फिर कभी उस निगोददशाको प्राप्त नहीं होता; महाशयने नहीं समझा और इसी लिए 'सौभाग्य' उसके पतनका फिर कोई अवसर नहीं रहता। परंतु का ansplions ( शुभ) अर्थ करके उसे यह कथन जैनशासनके विरुद्ध है । जैनधर्मकी मृगशिराका विशेषण बना दिया है । इस शिक्षाके अनुसार निगोदसे निकला हुआ जीव प्रकारकी भूलोंके सिवाय अनुवादही तर- फिर भी निगोदमें जा सकता है और उन्नतिकी तीब ( रचना) में भी कुछ भूलें हुई हैं, जिनसे चरम सीमाको पहुँचनेके पहले जो उत्थान होता मूल आशयमें कुछ गड़बड़ी पड़ गई है। जैसे है उसका पतन भी कथंचित् हो सकता है। कि गाथा नं. ४५ का अनुवाद । इस (घ) गाथा नं०३० की टीकामें पंचप्रकाअनुवादमें दूसरा वाक्य इस ढंगसे रक्खा रके मिथ्यात्वोंका जो स्वरूप लिखा है वह प्रायः गया है, जिससे यह मालूम होता है कि शास्त्र सम्मत मालम नहीं होता । जैसे विपति. पहले वाक्यमें चारित्रका जो स्वरूप कहा गया मिथ्यात्व उसे बतलाया है “ जिसमें यह खयाल है, वह व्यवहारनयको छोड़कर किसी दूसरी किया जाता है कि यह या वे दोनों सत्य हो ही नयविवक्षासे कथन किया गया है । परंतु सकते हैं" और अज्ञान मिथ्यात्व उसे, "जिसमें वास्तवमें मूलका ऐसा अभिप्राय नहीं है । इसी श्रद्धानका सर्वथा अभाव होता है अर्थात् किसी तरह २१ वें नम्बरकी गाथाका अनुवाद करते प्रकारका कोई श्रद्धान नहीं होता।" इस प्रकारके हुए निश्चय और व्यवहार कालके स्वरूपमें परस्पर स्वरूपका तत्त्वार्थसार और तत्त्वार्थ राजवार्ति गड़बडी की गई है । ४४.वीं गाथाके अनुवादकी कादि ग्रंथोंसे मेल नहीं मिलता। भी ऐसी ही दशा है।
(५) गाथा नं० ४४ की टीकामें ज्ञानावर- अब ग्रंथकी अँगरेजी टीकामें जो दूसरे शास्त्र- णोंय कर्मके उपशमसे 'ज्ञान' और दर्शनावरविरुद्ध कथन पाये जाते हैं, उनके भी दो चार णीय कर्मके उपशमसे 'दर्शनका' उत्पन्न होना नमूने दिखलाकर यह समालोचना पूरी की लिखा है; और इस तरह पर ज्ञान तथा दर्शनको जाती है:
.... औपशामिक : भी प्रगट किया है, जो जैन