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लोकविभाग और त्रिलोकप्रज्ञप्ति ।
अङ्क १२ ]
अंत एव उसके विषयमें कुछ नहीं कहा
जा सकता ।
जब लोकविभागके निर्माणसमय में सन्देह हो गया, तब और अधिक छान-बीन की आव. श्यकता मालूम हुई और अन्तमें यह निश्चय हो गया कि, वह अपेक्षाकृत आधुनिक ही " है - पुराना नहीं है । इसके पाँचवे अध्यायके ४२ वें श्लोकके बाद ' उक्तं चार्षे' लिखकर तीन श्लोक उद्धृत किये गये हैं । हम जानते हैं कि बहुतसे ग्रन्थकार जिनसेनस्वामी के आदिपुराणका ' आर्ष ' शब्दसे उल्लेख करते हैं । अतएव हमें आशा हुई कि ये इलोक आदिपुराणमें मिल • जायेंगे और अन्तमें हमारी आशा सफल भी हुई । आदिपुराणके तीसरे पर्व में हमें ये श्लोक मिल गये:
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ततस्तृतीय कालेऽस्मिन्व्यतिक्रामत्यनुक्रमात् । पस्योपमाष्टभागस्तु यदास्मिन्परिशिष्यते ॥ कल्पानोकवीर्याणां क्रमादेव परिच्युतौ । ज्योतिरंगास्तदा वृक्षा गता मन्दप्रकाशतां ॥ पुष्पदन्तावथाषाढ्यां पौर्णमास्यां स्फुरत्प्रभो । सायाह्ने प्रादुरास्तां तौ गगनोभयभागयोः ॥
आदिपुराणमें इनका नम्बर ५५-५६-५७ है। आदिपुराण विक्रमकी नौवीं शताब्दि के अन्तमें बना है, अतएव यह कहना होगा कि लोगविभाग उससे पीछे का है, शक संवत् ३८० का नहीं । तब ग्रन्थके अन्तमें जो समय लिखा है वह क्या जाली है ? लोगों को धोखा देनेके लिए लिखा गया है ?
प्रशस्तिके श्लोकों को बहुत बारीकीके साथ समझसे इस प्रश्नका उत्तर मिल जाता । पहले श्लोक के ‘भाषायाः परिवर्तनेन सिंहसूरर्षिणा विरचितं' पद और दूसरे श्लोक 'शास्त्रं पुरा लिखितवान् मुनि सर्वनन्दि: पदसे मालूम होता है कि इस ग्रन्थको पहले प्राकृत भाषा में सर्वनन्दि नामक
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मुनिने बनाया था, पीछे उसे भाषाका परिवर्तन करके सिंहसूरिने संस्कृतमें बनाया है । अतः शक संवत् ३८० ( वि० सं० ५१२ ) पहले प्राकृत, ग्रन्थके बनने का समय है, इस संस्कृत ग्रन्थके बननेका नहीं है । इसके बननेका समय या तो लिखा ही नहीं गया है, या लेखकोंकी गलती छूट गया है
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गरज यह कि उपलब्ध 'लोकविभाग ' जो कि संस्कृतमें है, बहुत प्राचीन ग्रन्थ नहीं है । प्राचीनतासे उसका इतना ही सम्बन्ध है वह एक बहुत पुराने - शक संवत् ३८० के बने हुए- ग्रन्थसे अनुवाद किया गया है। इस बातका निश्चय नहीं हो सका कि यह त्रैलोक्य सारसे कितने समय पीछे बना है । यदि इसके कर्ता सिंहरिके बनाये हुए किसी अन्य ग्रन्थका पता लगता, तो उससे शायद इसका निश्चय हो जाता ।
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कुछ
अब त्रिलोकप्रज्ञप्तिको लीजिए । इसका तिलोयपण्णत्ति ' हैं । बहुत बड़ा प्राकृत नाम ग्रन्थ है । इसकी श्लोकसंख्या आठ हजार है । ग्रन्थका अधिकांश प्राकृत गाथाबद्ध है । कुछ अंश गद्यमें भी है । संस्कृतच्छाया या टीका भी साथ नहीं है। इस कारण इसका अभिप्राय समझने में बड़ी कठिनाईका सामना करना पड़ता है । अप्रचलित और दुर्लभ होने के कारण अभीतक इसकी कोई भाषाटीका या वचनिका भी नहीं हुई है। इसका विषय इसके नामसे ही प्रकट है । त्रैलोक्यसारसे इसमें यह विशेषता है कि जो बात उसमें दश गाथाओंमें कही है, वह इसमें पंच्चीस पचास गाथाओं में लिखी गई है। सैकड़ों बातें ऐसी भी हैं, जो त्रैलोक्यसार में बिलकुल ही नहीं हैं । त्रैलोक्यसारकी गाथासंख्या एक हजार है, अतएव यह उससे अठगुणा बड़ा ग्रन्थ है । ऐसा मालूम होता है कि त्रैलोक्यसार इसी ग्रन्थका सार है और आश्चर्य नहीं जो वह
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