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जैनहितैषी
[ भाग १३
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पणके अनुसार शक संवत् ३८० के बाद को पढ़ाया । भूतबलिने जिनपालितको हुआ है।
का पढ़ाया। फिर एक गुणधर नामके आचार्य "इस ग्रन्थके अनुसार कल्किकी मृत्यु वीर- हुए । उनके शिष्य नागहस्ति आर्यमक्षुसे यति'निर्वाणके एक हजार वर्ष बाद हुई है और वृषभने पढ़ा । यदि इन सबके होनेमें ३२५
शकके ४६१ वर्ष पहले अथवा ६०५ वर्ष पहले वर्ष लगभग मान लिये जायँ तो (६८३+ वीरनिर्वाण हुआ है। यदि इन दो मतों से हम दूसरे ३२५= ) १०१८ वीरनिर्वाणके लगभग यतिमतको ठीक समझें, तो शक संवत् ३९५ में वृषभका समय ठीक हो सकता है । इन्द्रनन्दिकल्किकी मृत्यु माननी पड़ेगी। ऐसी दशामें को गुणधर और धरसेन आचार्यका पूर्वक्रम इस ग्रन्थको प्राकृत लोकविभागके पहलेका मालूम नहीं था, इसलिए ये आचार्य असंभव बना हुआ नहीं मान सकते। क्यों कि वह नहीं जो अंगज्ञानके नष्ट होनेके और अर्हदलि, शक ३८० में बना है।
माघनन्दि आदिके बहुत बाद-लगभग ३०० कितने पीछे बना है, यह निश्चयपूर्वक नहीं वर्ष बाद-हुए हों। कहा जा सकता, पर ऐसा मालूम होता है कि यदि यह न भी माना जाय-यद्यपि न कल्किके दश बीस वर्षों के बाद ही यह बना माननेका कोई प्रबल कारण नहीं दिखलाई होगा । क्योंकि एक तो इसमें कल्किके बादके देता-तो भी इसमें तो सन्देह नहीं कि यह ग्रन्थ बहुत थोड़े ही समयका वर्णन है, और उसमें प्राचीन है। इसकी रचनाशैली ही निराली है । भी कल्किके पुत्र अजितंजयके दो वर्षतक धर्म- पिछले समयके ग्रन्थोंकी रचनाशैलीसे वह नहीं राज्य करनेका उल्लेख है । यदि यह दो वर्षतक मिलती,। हमें आशा है कि यदि इस ग्रन्थका धर्मराज्य करनेकी बात बहुत पुरानी होती, तो बारीकीसे. अध्ययन किया जायगा, जिसके उसे लोग भूल ही गये होते-ग्रन्थकर्ताको भी लिए अभी हमारे पास समय नहीं है, तो इसके उसका पता न चलता। दूसरे अजितंजयके भीतरसे ही ऐसे प्रमाण उपलब्ध हो सकेंगे, जिनसे बहुत पीछे यदि यह ग्रन्थ बना होता तो यह इसकी प्राचीनता और भी स्पष्ट हो जायगी । संभव नहीं जान पड़ता कि, इतने बड़े भारी आश्चर्य नहीं जो इसके बननेका ठीक समय भी ग्रन्थमें उसके बादके अन्य राजाओंका थोड़ा निर्णीत हो जाय। बहुत उल्लेख न किया जाता।
इस ग्रन्थके अन्तमें जो कुन्थुनाथादि तीर्थइन्द्रनन्दिने यद्यपि यतिवृषभका समय नहीं करोंका स्तवन किया गया है, उसमें वीरभगवाबतलाया है, तथापि उन्होंने जिस क्रमसे वर्णन के स्तवनकी गाथा यह है:किया है, उससे कल्किके दश पाँच वर्ष पीछे एस सुरासुरमणुसिंदवंदियं धोदघादिकम्ममलं । यतिवृषभका समय होना, असंभव नहीं पणमामि वड्डमाणं तित्थं धम्मस्स कत्तारं ॥ ७७ ॥ जान पड़ता । • उनके कथनानुसार बीरनिर्वाण पाठक यह जानकर आश्चर्य करेंगे कि यही संवत ६८३ तक अंगज्ञानकी प्रवृत्ति रही है। गाथा श्रीकुन्दकुन्दाचार्यके सुप्रसिद्ध ग्रन्थ प्रवचनउसके बाद अहवाल आचार्य हुए। उनके कुछ सारकी प्रारंभक मंगलाचरणगाथा है। यदि समय बाद ( तत्काल ही नहीं ) माधनन्दि त्रिलोकप्रज्ञाप्तके कर्ता यतिवृषभ ही हैं, तो यह हुए। उनके स्वर्गवासी होने पर कुछ समय बाद मानना पड़ेगा कि, प्रवचनसारमें यह गाथा इसी धरसेन आचार्य हुए । इन्होंने भूतबलि पुष्पदन्त- ग्रन्थपरसे ले ली गई है। क्यों कि इन्द्रनन्दिके