Book Title: Jain Hiteshi 1917 Ank 12
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 19
________________ अङ्क १२ लोकविभाग और त्रिलोकप्रज्ञप्ति । ५३१ कथनानुसार कुन्दकुन्दाचार्य यतिवृषभसे पीछे कर्मों के नाश कर चुकने पर जम्बू केवला हुए । यतिवृषभके बाद ही उन्होंने सिद्धान्त- उनके बाद फिर कोई केवली नहीं हुआ। इन ग्रन्थोंकी टीका लिखी है। कन्दकन्दका समय गोतम आदि केवलियोंके धर्मप्रवर्तनका एकत्रित जो विक्रमकी पहली शताब्दिमें माना जा रहा समय ६२ वर्ष है ॥ ६६-६८ । है, वह हमारी समझमें भ्रम है। इस मानताकी कुण्डलगिरम्मि चरिमो केवलणाणीसु सिरिधरो सिद्धो। सत्यताके विषयमें : भट्टारकोंकी बे-सिरपैरकी चरणरिसीसु चरिमो सुपासचंदाभिधाणो य ॥६९॥ पट्टावलियोंके सिवाय और कोई प्रमाण नहीं पंणसमणेसु चरिमो वइरजसो णाम ओहिणाणिस्स । चरिमो सिरि णामो सुदविणयसुसीलादिसंपन्नो ॥७॥ दिया जा सकता । त्रिलोकप्रज्ञप्तिमें यह गाथा - मउंडधरेसु चरिमो जिगदिक्खं धरदि चंदगुत्तों य । उद्धता नहीं जान पडती। क्योंकि वहाँ यह तत्तो मउडधरादो पव्वज्ज व गेहति ॥ ७ ॥ तीर्थकरोंके क्रमागत स्तवनमें कही गई है। अर्थ केवलज्ञानियोंमें सबसे आन्तम श्रीधर परन्तु इस विषयमें अधिक जोर देकर कोई भी हुए जो कुण्डलगिरिसे मुक्त हुए, और चारण बात नहीं कही जा सकती । क्योंकि प्रवच- ऋद्धिके धारक ऋषियोंमें - सबसे अन्तिम नसार और त्रिलोकप्रज्ञप्ति दोनोंकी ही रच- सुपार्श्वचन्द्र हुए । इसी तरह पाँच श्रमणोंमें नाका समय सन्दिग्ध है। सबसे अतिभः वज्रयश हुए और अवधिज्ञानियोंमें, हरिवंशपुराणमें पालक आदि राजाओंका जी श्रुतविनयशीलादिसम्पन्न श्रीनामके . मुनि । इतिहास दिया है, हमारी समझमें वह त्रिलोक- मुकुटधर, राजाओंमें सबसे अन्तिम चन्द्रगुप्तने प्रज्ञप्तिपरसे ही लिया गया है । त्रिलोकप्रज्ञप्ति- जिनदीक्षा धारण की। इसके बाद किसी राजा. की वे गाथायें जिनसे पालक आदि राजाओंका न प्रवज्या या दाक्षा नहा ग्रहण का ॥६९-७१॥ इतिहास मालूम होता है, यहाँ उद्धृत की गंदी य णंदिमित्तो विदिओ अवराजिदं तई जाई। जाती हैं और उनका भावार्थ भी लिख दिया भी हिटिया गोवद्धणो चउत्थो पंचमओ रद्दवाहुत्ति ॥ ७२ ॥ जाता है । प्राचीन इतिहासके अन्वेषकोंके लिए पंच इमे पुरिसवरा चउदसपुषी जगनि विक्खाढा। ते वारसअंगधरा तित्थे सिरिवड्डमाणस्स ।। ७३ ॥ ये गाथायें बहुत उपयोगिनी सिद्ध होगी। पंचाणमेलिदाणं कालपमाणं हवेदि वाससदं । .. इन गाथाओंका सिलसिला महावीर भगवान्के वरिरामय पंचमए भरहे सुदकेवली णत्थि ॥ ७४ ।। निर्वाणके बादसे शुरू होता है। अर्थ-नन्दि, नन्दिमित्र, अपराजित,गर्विधन जादो सिद्धो वीरो तद्दिवसे गोदमो परमणाणी । १ भगवान महावीर के बाद केवल तीन ही केवल जादो तस्सि सिद्धे सुधम्मसामी तदो जादो॥६६॥ ज्ञानी हुए हैं, जिनमें जम्बूस्वामी अन्तिम थे । ऐसी • तमि कद कम्मणासे जंबसामित्ति केवली जादो। दशामें यह समझ में नहीं आता कि यहाँ श्रीधरको क्यों तत्व वि सिद्धपवणे, केवलिणो णत्थि अणुवद्धा ६७ अन्तिम केवली बतलाया, और ये कौन थे तथा कब वासही वासाणि गोदमपहृदोण णाणवंताणं । हुए हैं । शायद ये अन्तःकृत केवली हों। २ मूलमें पंण -धम्मपयणकाले परिमाणं पिण्डरूण ६४॥ समण' शब्द है। मालूम नहीं, इसका क्या अर्थ है। ये कोई विशेष प्रकारके मुनि जान पड़ते हैं। ३ यदि अर्थ-जिस दिन श्रीवीर भगवान्का यह ग्रन्थ छठी शताब्दिका बना हुआ हो, तो कहना मोक्ष हुआ, उसी दिन गोतम गणधरको परम होगा कि सम्राट चन्द्रगुप्तके जैन होनेके जो प्रमाण ज्ञान या केवलज्ञान हुआ और उनके सिद्ध उपलब्ध हैं उनमें यह सबसे पुराना है । ४ श्रुतावतारमें होने पर सुधर्मा स्वामी केवली हुए। उनके कृत- न न्दिके स्थानमें विष्णु नाम लिखा है। -

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