Book Title: Jain Hiteshi
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 6
________________ परन्तु इसमें भी सदेह नहीं कि उसके मनकी इन्छाए, उसके दिलकी उमगें, सुधार और उन्नतिके विचार, दूसरोका दुख दूर करनेकी अभिलापा, आदर, सन्मान अथवा धनप्राप्तिकी आशाएं सब घुलकर नष्ट हो जाती हैं। असफलता उसके मनको मुरझाकर मानवी उद्योगको निरर्थक सिद्ध करती है। इसी भावको कवियों और बुद्धिमानोंने सैकड़ों स्थानोंपर बड़ी उत्तमतासे पुष्ट किया है। ऐसी ही निराशा प्रायः उन लोगोंको होती है जो अपनी सतानको, अपने सम्बन्धियोंको अथवा अपनी जातिको एक अभिप्रायसे शिक्षा दिलवाना चाहते हैं परतु जो परिणाम होता है वह यदि विपरीत नहीं तो उससे भिन्न अवश्य होता है । कुछ लोग अपने बच्चोंको केवल इस लिए शिक्षा दिलाते है कि वे धर्मशास्त्र पढ़कर बडे धर्मज्ञ और धार्मिक नेता हो जाएँ: परन्तु कभी कभी ऐसा भी होता है कि वे बालक बड़े होकर महान् धूर्त और पापी निकलते है । बहुतसे मनुप्य अपनी संतानको अँगरेजी इसलिए पढ़ाते है कि लड़का, पढ़ लिखकर रुपया पैदा करेगा और मा वापकी सहायता करेगा; किन्तु परिणाम यह होता है कि वह उनकी सहायता तो क्या करेगा उल्टा कभी कभी स्वय उनपर भार हो जाता है। किसी किसी की यह इच्छा होती है कि मेरे लडके अँगरेजी पढ़ लें जिससे उनकी अँगरेजो तक गति हो जाए और उनके सहारेसे हमारा घराना उन्नति करे; परन्तु सम्भव है कि लडकेको इस प्रकारके व्यवहारसे घृणा हो जाए । हमारे इस बातके कहनेका अभिप्राय यह है कि जो उद्देश्य मातापिता अथवा अध्यापक या शिक्षाप्रेमी शिक्षासे रखते हैं वह बहुत कम सिद्ध होता है। वास्तवमे वह उद्देश्य शिक्षाका होना ही न चाहिए। इसमें संदेह नहीं कि प्रत्येक मनुष्यका शिक्षा दिलानेसे कोई मुख्य अभिप्राय जरूर होता है। एक

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