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प्रतिस्पर्धा में एक ही स्थान पर खड़े तो किये गये, किन्तु समग्र समाज के सहयोग के अभाव में कोई भी सम्यक् प्रगति नहीं कर सका ।
एकता की आवश्यकता क्यों
जैन समाज की एकता की आवश्यकता दो कारणों से है । प्रथम तो यह कि पारस्परिक ईर्ष्या-द्वेष एवं प्रतिस्पर्धा में समाज के श्रम, शक्ति और धन का जो अपव्यय
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रहा है, उसे रोका जा सके। जैसा हमनें सूचित किया आज समाज का करोड़ों रुपया प्रतिस्पर्धी थोथे प्रदर्शनों और पारस्परिक विवादों में खर्च हो रहा है, इनमें न केवल हमारे धन का अपव्यय हो रहा है, अपितु समाज की कार्य-शक्ति भी इसी दिशा में लग जाती है । परिणामत: हम योजनापूर्वक समाज सेवा और धर्म - प्रसार के कार्यों को हाथ में नहीं ले पाते हैं। यद्यपि अनियोजित सेवा कार्य आज भी हो रहे हैं, किन्तु उनका वास्तविक लाभ समाज और धर्म को नहीं मिल पाता है । जैन समाज के सैकड़ों कालेज और हजारों स्कूल चल रहे हैं - किन्तु उनमें हम कितने जैन अध्यापक खपा पाये हैं और उनमें से कितनें में जैन दर्शन, साहित्य और प्राकृत भाषा के अध्ययन की व्यवस्था है । देश जैन समाज के सैकड़ों हॉस्पीटल हैं, किन्तु उनमें हमारा सीधा इन्वाल्वमेण्ट न होने से हम जन-जन से अपने को नहीं जोड़ पाये हैं, जैसा कि ईसाई मिशनरियों के अस्पतालों में होता है । सामाजिक बिखराव के कारण हम सर्व सुविधा सम्पन्न बड़े अस्पाल या जैन विश्वविद्यालय आदि के व्यापक कार्य हाथ में नहीं ले पाते हैं।
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दूसरे जैनधर्म की धार्मिक एवं सामाजिक एकता का प्रश्न आज इसीलिए महत्त्वपूर्ण बन गया है कि अब इस प्रश्न के साथ हमारे अस्तित्व का प्रश्न जुड़ा हुआ है। प्रजातन्त्रीय शासन व्यवस्था में किसी वर्ग की आवाज इसी आधार पर सुनी और मानी जाती है कि उसकी संगठित मत - शक्ति (Voting Power ) एवं सामाजिक प्रभावशीलता कितनी है किन्तु एक विकेन्द्रित और अननुशासित धर्म एवं समाज की न तो अपनी मत - शक्ति होती है और न उसकी आवाज का कोई प्रभाव ही होता है। यह एक अलग बात है कि जैन समाज के कुछ प्रभावशाली व्यक्तित्व प्राचीनकाल से आज तक भारतीय शासन एवं समाज में अपना प्रभाव एवं स्थान रखते आये हैं, किन्तु इसे जैन समाज की प्रभावशक्ति मानना गलत होगा । यह जो भी प्रभाव रहा है उनकी निजी प्रतिभाओं का है, इसका श्रेय सीधे रूप में जैन समाज को नहीं है। चाहे उनके नाम का लाभ जैन समाज की प्रभावशीलता को बताने के लिए उठाया जाता रहा है । मानवतावादी वैज्ञानिक धर्म, अर्थ - सम्पन्न
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जैन एकता का प्रश्न : ४
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