Book Title: Jain Ekta ka Prashna
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 19
________________ धरोहर हैं, जिसे अस्वीकार करने का अर्थ अपने इतिहास और संस्कृति को ही अस्वीकार करना होगा। ___यह भी एक ऐतिहासिक तथ्य है कि जैनधर्म की श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही परम्पराओं में मूर्तिपूजा का विरोध सोलहवीं शताब्दी से प्रारम्भ हुआ। मूर्तिपूजाविरोधी यह आन्दोलन इस्लामधर्म से प्रभावित है। इस बात की पुष्टि इस तथ्य से भी होती है कि जैनधर्म में मूर्तिपूजा का विरोध करने वाले लोकाशाह और तारण स्वामी दोनों ही मुस्लिम शासकों के राज्याधिकारी थे। किन्तु यह माननाभी कि केवल मुस्लमानों के प्रभाव के कारण जैनधर्म में मूर्तिपूजा का विरोध प्रारम्भ हुआ, पूरी तरह सत्य नहीं होगा। जैनधर्म में मूर्तिपूजा के विरोध के कुछ आन्तरिक कारण भी थे। मूर्तिपूजा के नाम पर बढ़ता हुआ आडम्बर, हिंसा का समर्थन और जटिल कर्मकाण्ड भी इस विरोध में सहायक बने हैं। मूर्तिपूजा के समर्थक पं. बनारसीदास जी ने स्वयं इसी युग में मूर्तिपूजा के नाम पर होने वाली हिंसा और कर्मकाण्ड का विरोध किया था। मूर्तिपूजा सम्बन्धी जो विवाद आज जैन सम्प्रदायों में है, उसका निर्णय यदि शास्त्र की अपेक्षा सामान्य बुद्धि के आधार पर करें तो किसी एक समन्वयात्मक निष्कर्ष पर पहुँचा जा सकता है। उस सम्बन्ध मे उसकी उपयोगिता को ही आधार बनाकर चलना होगा। निष्पक्ष शोधों से यह बात स्पष्टरूप से प्रमाणित हो चुकी है कि जैनधर्म मे मूर्ति और मूर्तिपूजा का विकास क्रमिकरूप से हुआ है। पुरातात्विक और साहित्यिक साक्ष्य इसके प्रमाण हैं। दूसरे यह भी सत्य है कि मूर्तिपूजा को लेकर परवर्तीयुग में जितने आडम्बर और कर्मकाण्ड खड़े किये गये हैं, उन्होंने जैनधर्म की मूलात्मा पर कुठाराघात किया है। उन्होंने एक सहज एवं सरल साधना पद्धति को जटिल बनाया है। मूर्तिपूजा के साथ जुड़ने वाले इस कर्मकाण्ड पर ब्राह्मण संस्कृति और भक्तिमार्ग का प्रभाव है। चक्रेश्वरी, मणिभद्र एवं यक्ष-यक्षी, भैरव आदि की पूजा एवं यज्ञ जैन-सिद्धान्तों की मूलात्मा के साथ मेल नहीं खाते हैं । यद्यपि जैनों की आस्था को दूसरी ओर केन्द्रित होता देखकर जैनाचार्यों को यह सब करना पड़ा था। यह निर्विवाद तथ्य है कि मानव जाति के इतिहास में प्रारम्भ से ही मूर्तियों और प्रतिकृतियों का महत्व रहा है । आदि-युग के शैलचित्र और गुहाचित्र इस बात के प्रमाण हैं कि मानवीय सभ्यता के प्रारम्भ से ही प्रतिकृतियों के निर्माण ने मनुष्य को आकर्षित किया है। प्रतीक पूजा का इतिहास बहुत पुराना है। वस्तुत: मानवीय सभ्यता जैन एकता का प्रश्न ः १८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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