Book Title: Jain Ekta ka Prashna
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

Previous | Next

Page 21
________________ बात इसलिए बुद्धिगम्य नहीं है कि जिसकी वे प्रतिमाएँ हैं, वह तो वीतराग है- उसका इस चमत्कार प्रदर्शन आदि से कोई सम्बन्ध नहीं है। यदि यह कहा जाए कि जिन शासन रक्षक देव ऐसा करते हैं, तो वे उन अतिशयक्षेत्रों की प्रतिमाओं, जिन्हें लेकर दोनों पक्ष न केवल झगड़ते हैं, अपितु उस प्रतिमा के साथ भी अशोभनीय कृत्य करते हैं, के सम्बन्ध में कोई ऐसा चमत्कार क्यों नहीं दिखाते, जिससे विवाद शांत हो जाये और स्थिति प्रकट हो जाये । क्या जिन और जिनशासन की इस फजीहत को देखकर उन्हें तरस नहीं आता ? अतः मूर्ति को चमत्कार से नहीं, साधना से जोड़ें। I जहाँ तक श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्पराओं की मूर्तिओं की भिन्नता के समाधान का प्रश्न है, यह सत्य है कि प्रारम्भ में श्वेताम्बर जैन भी नग्न मूर्तियों की ही पूजा करते थे। मथुरा की दिगम्बर मूर्तियाँ श्वेताम्बर आचार्यों के द्वारा ही प्रतिष्ठित थीं । उनके गच्छ और शाखाओं के नाम नन्दी और कल्पसूत्र की पट्टावलियों के अनुरूप ही हैं । वहाँ जो कण्ह नामक जैन मुनि की मूर्ति मिली है, कटिवस्त्र के चिन्ह से युक्त नहीं है, किन्तु नग्नता छिपाने के लिए हाथ पर वस्त्रखण्ड के साथ ही आर्यिका की मूर्ति भी है जो सवस्त्र है । श्वेताम्बर दिगम्बर मूर्तियो की भिन्नता संघभेद के बहुत बाद की घटना है । आभूषण, अलंकरण और स्फटिक नेत्र आदि का प्रयोग और भी बाद में हुआ है । निष्पक्ष दृष्टि से विचार करने पर यह लगता है कि वीतराग प्रतिमा पर यह अंग प्रशोभन उचित नहीं है । मूर्ति और मन्दिर के साथ जो परिग्रह जुड़ता जा रहा है वह युक्तिसंगत नहीं है । श्वेताम्बर मुनि श्री न्यायविजय जी ने भी इसका विरोध किया था । आज यही सब विवादों का मुख्य कारण बन रहा है । एकता की दृष्टि से यही अच्छा विकल्प होगा कि पद्मासन की ध्यान मुद्रायुक्त प्रतिमाओं को ही अपनाया जाए और उस पर कन्दोरा, लंगोट, स्फटिक नेत्र आदि का उपयोग न हो । यद्यपि इसे तभी अपनाना होगा, जबकि दोनों सम्प्रदाय अपना विलीनीकरण कर लें अन्यथा ऐसी मूर्तियों को लेकर जैसे विवाद आज है, वैसे विवाद बाद में भी उठ खड़े होंगे। जहाँ तक मूर्तिपूजा सम्बन्धी विधि-विधान का प्रश्न है, उसमें भी आडम्बरवाद ही बढ़ा है, अत: अच्छा यही होगा कि दिगम्बर परम्परा के तेरापंथ में जो अचित द्रव्यों पूजा का विधान है उसे स्वीकार कर लिया जाये । द्रव्य-पूजा में हिंसा अल्पतम हो, यह बात ध्यान में रखना आवश्यक है। जिन मन्दिरों में यज्ञों को तो तत्काल बन्द कर Jain Education International जैन एकता का प्रश्न : २० For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34