Book Title: Jain Ekta ka Prashna
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur
Catalog link: https://jainqq.org/explore/003245/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन एकता का प्रश्न आहिंसा परमो धर्मः लेखक डॉ. सागरमल जैन प्रकाशक : प्राच्य विद्या पीठ, शाजापुर (म.प्र. Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन एकता का प्रश्न प्रास्ताविक विश्व के प्रमुख धर्मों में जैन धर्म एक अल्पसंख्यक धर्म है। लगभग 3 अरब की जनसंख्या वाले इस भूमण्डल पर जैनों की जनसंख्या 50 लाख से अधिक नहीं है अर्थात् विश्व के 600 व्यक्तियों में केवल 1 व्यक्ति जैन है। दुर्भाग्य यह है कि एक अल्पसंख्यक धर्म होते हुए भी वह आज अनेक सम्प्रदायों और उपसम्प्रदायों में बँटा हुआ है। दिगम्बर और श्वेताम्बर ये दो मूल शाखाएँ तो हैं ही, किन्तु वे शाखाएँ भी अवान्तर सम्प्रदायों में और सम्प्रदाय गच्छों में विभाजित हैं । दिगम्बर परम्परा के बीसपंथ, तेरापंथ, तारणपंथ ये तीन उपविभाग हैं । वर्तमान में कानजी स्वामी के अनुयायियो का नया सम्प्रदाय भी बन गया है। श्वेताम्बर परम्परा में मूर्तिपूजक, स्थानकवासी, तेरापंथी ये तीन सम्प्रदाय हैं। इनमें मूर्तिपूजक और स्थानकवासी अनेक गच्छों में विभाजित है। तेरापंथी सम्प्रदाय में भी अब नवतेरापंथ के नाम से बिखराव शुरू हो गया है। इनके अतिरिक्त, जैनधर्म की श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्पराओं की मध्यवर्ती-योजक कड़ी के रूप ‘यापनीय' नामक एक स्वतन्त्र सम्प्रदाय ईसा की दूसरी शताब्दी से लेकर 15वीं शताब्दी तक अस्तित्व में रहा । वर्तमान मे श्रीमद्राजचन्द्र के कविपंथ का भी एक स्वतन्त्र सम्प्रदाय के रूप में अस्तित्व है, यद्यपि इसके अनुयायी बहुत ही कम हैं। जैनधर्म के ये सभी सम्प्रदाय आज परस्पर बिखरे हुए हैं और कोई भी ऐसा सूत्र तैयार नहीं हो पाया है, जो इन बिखरी हुई कड़ियों को एक दूसरे से जोड़ सके। अब भारत जैन महामण्डल नामक संस्था के माध्यम से इन्हें जोड़ने का प्रयास किया जा रहा है। जैन समाज न केवल धार्मिक दृष्टि से विभिन्न सम्प्रदायों में बँटा हुआ है अपितु सामाजिक दृष्टि से अनेक जातियों और उपजातियों में विभाजित है। जिसमें अग्रवाल, खण्डेलवाल, बघेरवाल, मोढ़ आदि कुछ जातियों की स्थिति तो ऐसी है जिनके कुछ परिवार जैनधर्म के अनुयायी हैं तो कुछ वैष्णव। एक ही जाति में विभिन्न जैन उपसम्प्रदायों जैन एकता का प्रश्न : १ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के अनुयायी भी पाये जाते हैं- जैसे ओसवालों में श्वेताम्बरमूर्तिपूजक, स्थानकवासी और तेरपंथी - इन तीनों सम्प्रदायों के अनुयायी तो प्रचुरता से पाये ही जाते हैं किन्तु क्वाचित् दिगम्बर जैन और वैष्णव धर्म के अनुयायी भी मिलते हैं । जातिवाद का विष 1 डा. विलास आदिनाथ संगवे ने अपनी पुस्तक 'जैन कम्युनिटी' में उत्तर भारत की 84 तथा दक्षिण भारत की 91 जैन जातियों का उल्लेख किया है। पुराने समय में तो इन जातियों में पारस्परिक भोजन- व्यवहार सम्बन्धी कठोर प्रतिबन्ध थे । विवाह सम्बन्ध तो पूर्णतया वर्जित थे । आज खान-पान ( रोटी - व्यवहार) सम्बन्धी प्रतिबन्ध तो शिथिल हो गये हैं, किन्तु विवाह (बेटी व्यवहार) सम्बन्धी प्रतिबन्ध अभी भी यथावत् है । आश्चर्य तो यह है कि आज भी एक जाति का जैन परिवार अपनी जाति वैष्णव परिवार में तो विवाह - सम्बंध धार लेगा, किन्तु इतर जाति के जैन परिवार में विवाह - स ह - सम्बन्ध करना उचित नहीं समझेगा । विगत दो दशकों में हिन्दू खटिक एवं गुजराती बलाईयों के द्वारा जैनधर्म अपनाने के फलस्वरूप वीरवाल और धर्मपाल नामक जो दो नवीन जैन जातियाँ अस्तित्व में आई हैं, किन्तु उनके साथ भी पारस्परिक सामाजिक एकात्मता का अभाव ही है । जैन जातियों में पारस्परिक अलगाव की यह स्थिति उनकी भावनात्मक एकता में बाधक है। हमारा बिखराव दोहरा है - एक जातिगत और दूसरा सम्प्रदायगत । जब तक इन जातियों मे परस्पर विवाह-सम्बन्ध और समानस्तर की सामाजिक एकात्मता स्थापित नहीं होगी तब तक भावनात्मक एकता को स्थायी आधार नहीं मिलेगा। अनेक जातियों में जो दसा और बीसा का भेद है और उस आधार पर या सामान्यरूप में भी जातियों को एक दूसरे से ऊँचा - नीचा समझने की जो प्रवृत्ति है, उसे भी समाप्त करना होगा। वर्तमान परिस्थितियों में चाहे इन जातिगत विभिन्नताओं को मिटा पाना सम्भव नहीं हो, किन्तु उन्हें समान स्तर की सामाजिकता तो प्रदान की जा सकती है । यदि समान स्तर की सामाजिकता और पारस्परिक विवाह सम्बन्ध स्थापित हो जायें तो जातिवाद की ये दीवारें अगली दो चार सीढ़ियों तक स्वतः ही ढह जायेंगी। जैनधर्म मूलत: जातिवाद एवं ऊँच-नीच का समर्थक नहीं रहा है, यह सब उस पर ब्राह्मण संस्कृति का प्रभाव है । यदि हम अन्तरात्मा से जैनत्व के हामी हैं तो हम ऊँच-नीच और जातिवाद की इन विभाजक दीवारों को समाप्त करना होगा, तभी भावतात्मक सामाजिक एकता का विकास हो सकेगा । जैन एकता का प्रश्न : २ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साम्प्रदायिकता का विष आज जैन समाज का श्रम, शक्ति और धन किन्हीं रचनात्मक कार्यों में लगने के बजाय पारस्परिक संघर्षों, तीर्थों और मन्दिरों के विवादों, ईर्ष्यायुक्त प्रदर्शनी और आडम्बरों तथा थोथी प्रतिष्ठा की प्रतिस्पर्धा में किये जाने वाले आयोजनों में व्यय हो रहा है । इस नग्न सत्य को कौन नहीं जानता है कि हमने एक-एक तीर्थ और मन्दिर के झगड़ो मे इतना पैसा बहाया है और बहा रहे हैं कि उस धन से उसी स्थान पर दस-दस भव्य और विशाल मन्दिर खड़े किये जा सकते थे । अन्तरिक्ष पार्श्वनाथ, मक्सी, रियाजी जैसे अनेक तीर्थ स्थलों पर आज भी क्या हो रहा है? जिस जिन - प्रतिमा को हम पूज्य मान रहे है, उसके साथ क्या-क्या दुष्कर्म हम नहीं कर रहे हैं ? उस पर उबलता पानी डाला जाता है, नित्यप्रति गरम शलाखों से उसकी आँखें निकाली और गायी जाती हैं। अनेक बार लंगोट आदि के चिन्ह बनाये और मिटाये गये हैं। क्या यह सब हमारी अन्तरात्मा को कचोटता नहीं है ? पारस्परिक संघर्षों में वहाँ जो घटनाएँ घटित हुई हैं, वे क्या एक अहिंक समाज के लिए शर्मनाक नहीं है ? क्या यह उचित है कि चींटी की रक्षा करनेवाला समाज मनुष्यों के खून से होली खेले ? पत्र-पत्रिकाओं मे एक दूसरे के विरुद्ध जो विष वमन किया जाता है, लोगों की भावनाओं को एक-दूसरे के विपरीत उभाड़ा जाता है, वह क्या समाज के प्रबुद्ध विचारकों के हृदय को विक्षोभित नहीं करता है ? आज आडम्बरपूर्ण गजरथों, पञ्चकल्याणकों और प्रतिष्ठा समारोहों, मुनियों के चातुर्मासों में चलने वाले चौकों ओर दूसरे आडमबरपूर्ण प्रतिस्पर्धी आयोजनों में जो प्रतिवर्ष करोड़ों रुपयों का अपव्यय हो रहा है, वह क्या धन के सदुपयोग करनेवाले मितव्ययी जैन समाज के लिए हृदय विदारक नहीं है । भव्य और गरिमापूर्ण आयोजन बुरे नहीं हैं, किन्तु वे जब साम्प्रदायिक दुरभिनिवेश और ईर्ष्या के साथ जुड़ जाते हैं तो अपनी सार्थकता खो देते हैं। पारस्परिक प्रतिस्पर्धा में हमने एक - एक गाँव में और एक-एक गली में दस-दस मन्दिर तो खड़े कर लिये किन्तु उनमें आबू, राणकपुर जैसलमेर खुजराहो या गोम्मटेश्वर . जैसी भव्यता एवं कला से युक्त कितने हैं ? एक-एक गाँव या नगर में चार-चार धार्मिक पाठशालाएँ चल रही हैं, विद्यालय चल रहे हैं किन्तु सर्व सुविधा सम्पन्न सुव्यवस्थित विशाल पुस्तकालय एवं शास्त्र भण्डार से युक्त जैन विद्या के अध्ययन और अध्यापनकेन्द्र तथा शोध संस्थान कितने हैं ? अनेक अध्ययन-अध्यापन केन्द्र साम्प्रदायिक जैन एकता का प्रश्न : ३ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिस्पर्धा में एक ही स्थान पर खड़े तो किये गये, किन्तु समग्र समाज के सहयोग के अभाव में कोई भी सम्यक् प्रगति नहीं कर सका । एकता की आवश्यकता क्यों जैन समाज की एकता की आवश्यकता दो कारणों से है । प्रथम तो यह कि पारस्परिक ईर्ष्या-द्वेष एवं प्रतिस्पर्धा में समाज के श्रम, शक्ति और धन का जो अपव्यय dxd रहा है, उसे रोका जा सके। जैसा हमनें सूचित किया आज समाज का करोड़ों रुपया प्रतिस्पर्धी थोथे प्रदर्शनों और पारस्परिक विवादों में खर्च हो रहा है, इनमें न केवल हमारे धन का अपव्यय हो रहा है, अपितु समाज की कार्य-शक्ति भी इसी दिशा में लग जाती है । परिणामत: हम योजनापूर्वक समाज सेवा और धर्म - प्रसार के कार्यों को हाथ में नहीं ले पाते हैं। यद्यपि अनियोजित सेवा कार्य आज भी हो रहे हैं, किन्तु उनका वास्तविक लाभ समाज और धर्म को नहीं मिल पाता है । जैन समाज के सैकड़ों कालेज और हजारों स्कूल चल रहे हैं - किन्तु उनमें हम कितने जैन अध्यापक खपा पाये हैं और उनमें से कितनें में जैन दर्शन, साहित्य और प्राकृत भाषा के अध्ययन की व्यवस्था है । देश जैन समाज के सैकड़ों हॉस्पीटल हैं, किन्तु उनमें हमारा सीधा इन्वाल्वमेण्ट न होने से हम जन-जन से अपने को नहीं जोड़ पाये हैं, जैसा कि ईसाई मिशनरियों के अस्पतालों में होता है । सामाजिक बिखराव के कारण हम सर्व सुविधा सम्पन्न बड़े अस्पाल या जैन विश्वविद्यालय आदि के व्यापक कार्य हाथ में नहीं ले पाते हैं। 1 दूसरे जैनधर्म की धार्मिक एवं सामाजिक एकता का प्रश्न आज इसीलिए महत्त्वपूर्ण बन गया है कि अब इस प्रश्न के साथ हमारे अस्तित्व का प्रश्न जुड़ा हुआ है। प्रजातन्त्रीय शासन व्यवस्था में किसी वर्ग की आवाज इसी आधार पर सुनी और मानी जाती है कि उसकी संगठित मत - शक्ति (Voting Power ) एवं सामाजिक प्रभावशीलता कितनी है किन्तु एक विकेन्द्रित और अननुशासित धर्म एवं समाज की न तो अपनी मत - शक्ति होती है और न उसकी आवाज का कोई प्रभाव ही होता है। यह एक अलग बात है कि जैन समाज के कुछ प्रभावशाली व्यक्तित्व प्राचीनकाल से आज तक भारतीय शासन एवं समाज में अपना प्रभाव एवं स्थान रखते आये हैं, किन्तु इसे जैन समाज की प्रभावशक्ति मानना गलत होगा । यह जो भी प्रभाव रहा है उनकी निजी प्रतिभाओं का है, इसका श्रेय सीधे रूप में जैन समाज को नहीं है। चाहे उनके नाम का लाभ जैन समाज की प्रभावशीलता को बताने के लिए उठाया जाता रहा है । मानवतावादी वैज्ञानिक धर्म, अर्थ - सम्पन्न जैन एकता का प्रश्न : ४ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाज, तथा विपुल साहित्यिक एवं पुरातत्त्वीय सम्पदा का धनी यह समाज आज उपक्षित क्यों है ? आज 'संघे शक्तिः कलियुगे' लोकक्ति को ध्यान में रखना होगा। अन्यथा धीरे-धीरे हमारा अस्तित्व नाम-शेष हो जायेगा। हमारे बिखराव के कारण __ यद्यपि यह सही है कि जैन समाज की इस विच्छिन्न दशा पर प्रबुद्ध विचारकों ने सदैव ही चार-चार आँसू बहाये हैं और इसकी वेदना का हृदय की गहराईयों तक अनुभव किया है। इसी दशा को देखकार अध्यात्मयोगी सन्त आनन्दघनजी को कहना पड़ा था गच्छना बहुभेद नयने निहालतां तत्व नी बात करता नी लाजे। यद्यपि प्रबुद्ध वर्ग के द्वारा समय-समय पर एकता के प्रयत्न भी हुए हैं, चाहे उनमें अधिकांश उपसम्प्रदायों की एकता तक ही सीमित रहे हों। भारत जैन महामण्डल, वर्द्धमान स्थानकवासी जैन श्रमण संघ, श्वेताम्बर जैन कान्फ्रेन्स, दिगम्बर जैन महासभा, स्थानकवासी जैन कान्फ्रेन्स इसके अवशेष हैं। इनके लिए अवशेष शब्द का प्रयोग में जानबूझकर इसलिए कर रहा हूँ कि आज न तो कोई अन्तर की गहरईयों से इनके प्रति श्रद्धानिष्ठ है और न इनकी आवाज में कोई बल है- ये केवल शोभा मूर्तियाँ हैं- जिनके लेबल का प्रयोग हम साम्प्रदायिक स्वार्थों की पूर्ति के लिए या एकता का ढिढोरा पीटने के लिए करते रहते हैं। अन्दर में हम सब पहले श्वेताम्बर, स्थानकवासी, मूर्तिपूजक, दिगम्बर, बीस-पन्थी, तेरापंथी, कानजीपन्थी हैं, बाद में जैन । वस्तुत: जब तक यह दृष्टि नहीं बदलती है, इस समीकरण को उलटा नहीं जाता, तब तक जैन समाज की भावात्मक एकता का कोई आधार नहीं बन सकता। आज स्थानकवासी जैन श्रमण संघ को, जिसके निर्माण के पीछे समाज के प्रबुद्धवर्ग का वर्षों का श्रम एवं साधना थी और समाज का लाखों रुपया व्यय हुआ था, किसने नामशेष बनाया है? इसके लिए बाहर के लोगों की अपेक्षाभी अन्दर के लोग अधिक जवाबदार हैं। श्वेताम्बर मूर्तिपूजक समाज के मुनिवर्ग के अहमदाबाद सम्मेलन का कोई प्रभावकारी परिणाम क्यों नहीं निकला? . आज तेरापन्थ जिसकी एकता पर हमें नाज था, बिखराव की स्थिति में क्यों है? जैन एकता का प्रश्न : ५ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिगम्बर मुनिसंघ यद्यपि अभी अल्पसंख्या में हैं, किन्तु उसमें भी बिखराव के लक्षण उभर कर सामने आने लगे है। अलग-अलग तम्बू लगने लगे हैं । कानजीपन्थ और मूल आम्नाय का विवाद तो खुलकर सामने आ ही गया था, चाहे कानजी स्वामी के स्वर्गवास के पश्चात् उसमें कुछ कमी आई हो ? बात कठोर अवश्य है, किन्तु सही स्थिति यह है कि आज समाज का अधिकांश मुनिवर्ग, कुछ नेतृत्व के भूखे श्रावक और पण्डित अपनी दुकान जमाने के चक्कर में है ? अपनी पूजा एवं प्रतिष्ठा बटोरने के प्रयास में है। वे सभी महावीर के नाम का उपयोग तो केवल इसलिए करते हैं कि अपनी दुकान चल निकले। जब हम सब अपनी दुकान जमाने को आतुर होंगे तो महावीर की दुकान कौन चलायेगा ? जब मुनीम अपनी दुकान जमाने के फेर में पड़ जाता है तो सेठ की दुकान की क्या स्थिति होगी - यह सुविदित ही है। जैन एकता की पीठ में जब कोई छुरा गया है तो ऐसे ही लोगों के द्वारा भोंका गया है। बिखराव का मूल कारण - प्रतिष्ठा की भूख समाज में जब भी कोई मुनि या पण्डित थोड़ा बहुत प्रवचन- पटु बना कि वह अपना एक तम्बू अलग गाड़ने का प्रयास करने लगता है । अपने उपासक, अपनी संस्था और अपना पत्र इस प्रकार एक नया वर्ग खड़ा हो जाता है और बिखराव की स्थिति आ जाती है । बिखराव इसलिए होता है कि समाज की आस्था का मूल केन्द्र महावीर या उनका धर्म न होकर वह मुनि, आचार्य या विद्वान् होता है। लेखक ने स्वयं देखा है कि आज स्थानकवासी समाज में अधिकांश मुनि और साध्वियाँ प्रवचन के पूर्व में, अन्त मे और प्रार्थनाओं मे अपने-अपने वर्तमान आचार्यों का ही स्तवन गान करते हैं। अब तो भक्तामर - शैली में संस्कृत भाषा में निबद्ध जीवित आचार्यों के स्तोत्र बन चुके हैं। शायद आज हम उस महावीर को भुला चुके हैं, जिसे हमारी सभी की आस्था का केन्द्र होना चाहिये और जिसके आधार पर ही हम सब एकता के सूत्र में बंध सकते हैं। जो जैन धर्म गुणपूजक था, जिसके महान् आचार्यों ने अपने नमस्कार - मन्त्र में किसी भी व्यक्ति का, यहाँ तक कि महावीर का भी नाम न रखा था, उसमें बढ़ती हुई यह व्यक्ति - उपासना ही हमारे बिखराव का कारण है । यदि हम सच्चे हृदय से जैन-1 - एकता को चाहते हैं तो समाज से ये व्यक्तिपरक स्तुतियाँ तत्काल बन्द कर देना चाहिये । सार्वजनिक प्रार्थनासभाओं प्रवचनों आदि में केवल तीर्थकरों का ही स्तवन हो, किसी आचार्य या मुनि विशेष का नहीं । आचार्यों और मुनियों के प्रति विनयभाव तो रहे, जैन एकता का प्रश्न : ६ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किन्तु श्रद्धा का केन्द्र वीतरागता और समतामय धर्म ही हो- कोई व्यक्ति नहीं। संक्षेप में हम व्यक्तिपूजक नहीं, गुणपूजक बनें। समाज में जब व्यक्तिपूजा के स्थान पर गुणपूजा प्रतिष्ठित होगी तभी समाज में एकता की भावना सबल होगी। व्यक्तिपूजा, पूजक और पूज्य दोनों के अहंकार का सिंचन करती है और उनकी चारित्रिक स्खलनाओं का कारण बनती है। लेखक ने जीवित आचार्यों और मुनियों के ऐसे स्तोत्र देखे, जिनमें उनके गुणों एवं अतिशयों का ऐसा चित्रण है जो उन्हें वीतराग-प्रभु के समकक्ष ही प्रस्तुत करता है। समाज में अभिनन्दन-समारोहों और अभिनन्दन-ग्रन्थों की आयी हुई बाढ़ भी अहंकारपुष्टि का ही माध्यम है। अहंकार ऐसा मीठा जहर है - जिससे मुक्ति पाना बड़ा कठिन है। जब भी किसी व्यक्ति के ऐसे पुष्ट अहंकार पर चोट पड़ती है या ईर्ष्यावश किसी व्यक्ति की महत्त्वाकांक्षा जाग जाती है तो वह अपना अखाड़ा अलग बना लेता है। अनेक सम्प्रदायों के उद्भव के पीछे यही एक महत्त्वपूर्ण कारण रहा है। विभिन्न सम्प्रदायों के उद्भव की जो कहानियाँ जैन-ग्रन्थों में दी गई हैं, वे इस बात की पुष्टि करती हैं। किसी के अहंकार का अमर्यादित पोषण दूसरे की महत्त्वाकांक्षा को बढ़ाता है और समाज में ईर्ष्या या विद्वेष के विष-वृक्ष को पनपाता है। हमारी धार्मिक एवं सामाजिक एकता का विकास तभी सम्भव है जब सामाजिक जीवन में व्यक्तियों के अहंकार के पोषण की ये अमर्यादित प्रवृत्तियाँ प्रतिबन्धित हों और दूसरों को हीन अपमानित अनुभव करने के अवसर नहीं हों। धार्मिक सम्प्रदायों के पारस्परिक संघर्षों का उद्भव क्यों और कैसे? विभिन्न युगों मे जैनाचार्य अपने युग की तात्कालिक परिस्थितियों से प्रभावित होकर साधना के बाह्य नियमों में परिवर्तन करते रहे हैं । देशकालगत परिस्थितियों के प्रभाव के कारण और साधक की साधना क्षमता की विभिन्नता के कारण धर्म-साधना के बाह्य रूपों में ऐसे परिवर्तनों का हो जाना स्वाभाविक हो था और न केवल जैन अपितु सभी धर्मो के इतिहास में ऐसा अनेक बार हुआ है; साधना सम्बन्धी ये सब विविधताएँ धार्मिक संघर्षों का कारण नहीं बनती। साम्प्रदायिक मतान्धता और संघर्षों का कारण साधना सम्बन्धी विविधता में नहीं अपितु मनुष्य की ममता, आसक्ति, अहंकार और स्वार्थपरता में ही रहा है। वस्तुत: मनुष्य जब अपने धर्माचार्य के प्रति रागात्मकता के कारण अथवा अपने मन में व्याप्त आग्रह और अहंकार के कारण अपने धर्म, सम्प्रदाय या साधना जैन एकता का प्रश्न : ७ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्धति को ही एकमात्र और अन्तिम सत्य तथा अपने धर्मगुरु को ही सत्य का एकमात्र प्रवर्तक मान लेता है, तो परिणामस्वरूप साम्प्रदायिक वैमनस्य का सूत्रपात हो जाता है। वस्तुतः धार्मिक वैमनस्यों और धार्मिक संघर्षों के मूलभूत कारण मनुष्य का अपने धर्माचार्य और सम्प्रदाय के प्रति आत्यन्तिक रागात्मकता तथा तज्जन्य अपने मत की एकान्तिक सत्यता का आग्रह ही है । यद्यपि बिखराव के अन्य कारण भी होते हैं। I वस्तुतः धार्मिक विविधताओं और धर्म सम्प्रदायों के उद्भव के अनेक कारण होते हैं, जिनमें से कुछ उचित कारण और कुछ अनुचित कारण होते हैं । उचित कारण निम्न हैं- 1. सत्य सम्बन्धी दृष्टिकोण - विशेष या विचार भेद, 2. देशकालगत भिन्नता के आधार पर आचार सम्बन्धी नियमों की भिन्नता, 3. पूर्वप्रचलित धर्म सम्प्रदाय में युग की आवश्यकता के अनुरूप परिवर्तन या संशोधन । जबकि अनुचित कारण ये हैं- 1. वैचारिक दुराग्रह, 2. पूर्व सम्प्रदाय या धर्म में किसी व्यक्ति का अपमानित होना, 3. किसी व्यक्ति की प्रसिद्धि पाने की महत्त्वाकांक्षा, 4. पूर्व सम्प्रदाय के लोगों से अनबन हो जाना । यदि हम उपर्युक्त कारणों का विश्लेषण करें, तो हमारे सामने दो बातें स्पष्टतः आ जाती हैं। प्रथम, यह कि देशकालगत तथ्यों की विभिन्न, वैचारिक अथवा प्रचलित ' परम्पराओं में आयी हुई विकृतियों के संशोधन के निमित्त विविध धार्मिक सम्प्रदायों का उद्भव होता है; किन्तु ये कारण ऐसे नहीं हैं जो साम्प्रदायिक वैमनस्य के आधार कहे जा सके। वस्तुत: जब भी इनके साथ मनुष्य के स्वार्थ, दुराग्रह, अहंकार, महत्त्वाकांक्षा और पारस्परिक ईर्ष्या के तत्त्व प्रमुख बनते है; तभी धार्मिक उन्मादों का अथवा साम्प्रदायिक कटुता का जन्म होता है और शान्ति प्रदाता धर्म ही अशान्ति का कारण बन जाता है। आज के वैज्ञानिक युग में जब व्यक्ति धर्म के नाम पर यह सब देखता है तो उसके मन में धार्मिक अनास्था बढ़ती है और वह धर्म का विरोधी बन जाता है । यद्यपि धर्म के विविध सम्प्रदायों में बाह्य नियमों की भिन्नता हो सकती है, तथापि यदि हमारी दृष्टि व्यापक और अनाग्रही हो तो इसमें भी एकता और समन्वय के सूत्र खोजे जा सकते हैं। साम्प्रदायिक वैमनस्य का अन्त कैसे हो ? धर्म के क्षेत्र में असहिष्णुता का जन्म तब होता है जब हम यह मान लेते हैं कि जैन एकता का प्रश्न : ८ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हम जिस आचार्य को अपनी आस्था या श्रद्धा का केन्द्र मान रहे हैं, उसका पक्ष ही एकमात्र सत्य है और उसके अतिरिक्त अन्य सभी मिथ्यात्वी और शिथिलाचारी हैं। 'हम सच्चे और दूसरे झूठे' की भ्रान्त धारणा धार्मिक असहिष्णुता को जन्म देती है । यह माना कि सत्य का सूर्य केवल हमारे घर को ही आलोकित करता है, एक मिथ्या धारणा ही है। जैनधर्म का अनेकान्तवाद यह मानता है कि सत्य का बोध और प्रकाशन दूसरो के द्वारा भी सम्भव है, सत्य हमारे विपक्ष में हो सकता है। हम ही सदाचारी और शुद्धाचारी हैं- दूसरे सब शिथिलाचारी और असंयती हैं - यह कहना क्या उन लोगों को शोभा देता है - जिनके शास्त्र 'अन्यलिंगसिद्धा' का उद्घोष करते हैं। आज दुर्भाग्य तो यह है कि जो दर्शन अनेकांत के सिद्धान्त के द्वारा विश्व के विभिन्न धर्म और दर्शनों में समन्वय की बात कहता है और जो 'षट्दरसण जिन अंग भणीजे' की व्यापक दृष्टि प्रस्तुत करता है, वह स्वयं अपने ही सम्प्रदायों के बीच समन्वय - सूत्र नहीं खोज पा रहा है । एक ओर अनेकांतवाद का उद्घोष और दूसरी ओर सम्प्रदायों का व्यामेहदोनों एक साथ सत्य नहीं हो सकते। वस्तुतः कोई व्यक्ति जैन हो और उसमें साम्प्रदायिक दुराग्रह भी हो, यह नहीं हो सकता। यदि हम सम्प्रदायों, दुराग्रहों मे आस्था रखते हैं, तो इतना सुनिश्चित है कि हम जैन नहीं हैं । जैनधर्म की परिभाषा है - स्याद्वादो वर्ततेऽस्मिन् पक्षपातो न विद्यते । नास्त्यन्य पीडनं किच्चित्, जैनधर्मः स उच्चते ॥ 1 जो स्याद्वाद में आस्था रखता है तथा पक्षपात से दूर और जो किसी को पीड़ा नहीं देता, वही जैनधर्म का सच्चा अनुयायी है । अहिंसा और अनेकान्त के सच्चे अनुयायियों में साम्प्रदायिक वैमनस्य पनपे, यह सम्भव नहीं है । यहाँ हमारे जीवन के विरोधाभास स्पष्ट हैं । हम अहिंसा की दुहाई देते हैं और अपने ही सहधर्मी भाईयों को पीटने या पिटवाने का उपक्रम करते हैं- हमारी साम्प्रदायिक वैमनस्यता ने अहिंसा की पवित्र चादर पर खून के छीटें डाले हैं - अन्तरिक्ष पार्श्वनाथ और केसरियाजी की घटनाएँ आज भी इसकी साक्षी हैं। हम अनेकांत का नाम लेते हैं और साम्प्रदायिक क्षुद्रताओं से बुरी तरह जकड़े हुए अपने सम्प्रदाय के अलावा हमें सभी मिथ्यात्वी नजर आते हैं। 'अपरिग्रह की दुहाई देते हैं, किन्तु देवद्रव्य के नाम पर धन का संग्रह करते हैं, मन्दिरों की सम्पत्तियों के लिए न्यायालयों में वाद प्रस्तुत करते हैं। आश्चर्य तो यह है कि वादी के नाम में परम अपरिग्रही भगवान् का नाम भी जुड़ता है । जिस प्रभु ने अपनी समस्त धन जैन एकता का प्रश्न : ९ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पत्ति का दान करके जीवन-पर्यन्त अपरिग्रह की साधना की, उसके अनुयायी होने का दम्भ भरने वाले हम क्या उसी प्रभु की एक प्रतिमा या मन्दिर भी अपने दूसरे भाई को प्रदान नहीं कर सकते ? वस्तुत: हमारे जीवन-व्यवहार का जैनत्व से दूर का भी रिश्ता नहीं दिखाई देता है। हमारे अनेकान्त, अहिंसा और अपरिग्रह के सिद्धान्त मात्र दिखावा हैं -छलना हैं - वे हमारे जीवन के साथ जुड़ नहीं पाये हैं। तभी तो आध्यात्मिक सन्त आनन्दघन जी को वेदना के दो आँसू बहाते हुए कहना पड़ा था - गच्छना भेद बहु नयने निहालतां, तत्त्वनी बात करतां नी लाजे। उदरभरणदि निज काज करतां थकां, मोह नडिया कलिकाल राजे। गच्छों और सम्प्रदायों के विविध भेदों को अपने समक्ष देखते हुए भी हमें अनेकांत के सिद्धान्त की दुहाई देने में शर्म क्यों नहीं आती? वस्तुत: इस कलिकाल में व्यामोहों (दुराग्रहों) से ग्रस्त होकर सभी केवल अपना पेट भरने के लिए अर्थात् वैयक्तिक पूजा और प्रतिष्ठा पाने के लिए प्रयत्नशील हैं। भावार्थ यही है कि सम्प्रदायों और गच्छों के नाम पर हम अपनी-अपनी दुकानें चला रहे हैं। जिनप्रणीत धर्म और सिद्धान्तों का उपदेश तो केवल दूसरों के लिए है- तुम हिंसा मत करो, तुम दुराग्रही मत बनो, तुम परिग्रह का संचय मत करो आदि। किन्तु हम अपने में कहाँ हिंसा, आग्रह और आसक्ति (स्वार्थ-वृत्ति) के तत्त्व छिपे हुए हैं, इसे नहीं देखते हैं। वस्तुत: साम्प्रदायिक वैमनस्य इसीलिए है कि अहिंसा, अनाग्रह और अनासक्ति के धार्मिक आदर्श हमारे जीवन का अंग नहीं बन पाये हैं। यदि धर्म का अमुत जीवन में प्रविष्ट हो जाये तो साम्प्रदायिकता के विष का प्रवेश ही नहीं हो सकता। हम एकता की दिशा में तभी गतिशील हो सकेंगे जब जीवन में अहिंसा, अनाग्रह, नि:स्वार्थता और अपरिग्रह के तत्व विकसित होंगे। इनके विकास के साथ ही साम्प्रदायिकदौर्मनस्य अपने आप समाप्त हो जायेगा । यदि प्रकाश आयेगा तो अंधकार अपने आप समाप्त हो जायेगा। प्रयत्न अन्धकार को मिटाने का नहीं, प्रकाश को प्रकट करने का करना है। हमें प्रयत्न सम्प्रदायों को मिटाने का नहीं, जीवन में धर्म और विवेक को विकसित करने के लिए करना है। जैन एकता का प्रश्न : १० Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म के साम्प्रदायिक मतभेद एवं उनके निराकरण के उपाय (अ) सचेलता और अचेलता का प्रश्न सर्वप्रथम हम श्वेताम्बर, दिगम्बर सम्प्रदायों के मतभेद को ही लें और देखें कि उसमें कितनी सार्थकता है। श्वेताम्बर और दिगम्बर सम्प्रदायों मे विवाद का मूल मुद्दा मुनि के नग्नत्व का है। तीर्थप्रवर्तक प्रभु महावीर निर्वस्त्र (अचेल) रहे, यह बात दोनों को मान्य है। आर्यिका (साध्वी), श्रावक और श्राविका की सवस्त्रता (सचेलता) भी दोनों को स्वीकार्य है । सवस्त्रता की समर्थक श्वेताम्बर परम्परा के प्राचीन आगमों में भी मुनि की अचेलता का न केवल समर्थन है अपितु अचेलकत्व की मुक्तकण्ठ से प्रशंसा भी की गई है। जिन और जिनकल्पी अर्थात् जिन के समान आचरण करने वाले मुनि नग्न रहते थे यह बात श्वे. परम्परा को भी मान्य है। वस्तुत: जब साम्प्रदायिक दुरभिनिवेश बढ़ा तो एक ओर श्वेताम्बरों ने जिनकल्प (अचेलकत्व) के विच्छेद की घोषणा कर दी तो दूसरी ओर दिगम्बरों ने मूलभूत आगम-साहित्य को ही अमान्य कर दिया। इस विवाद का परिणाम यहाँ तक हुआ कि श्वे. साहित्य में यह कह दिया गया कि जिनकल्पी मुक्त नहीं होता है। वह केवल स्वर्गगामी होता है, जब कि दिगम्बर आचार्यों ने यह कह दिया कि यदि तीर्थकर भी सवस्त्र होगा तो मुक्त नहीं होगा। निष्पक्षरूप से श्वेताम्बर परम्परा में मान्य आगम-साहित्य का अध्ययन करने पर यह बात स्पष्ट हो जाती है कि वस्त्र-पात्र आदि उपाधियों का विकास क्रमश: ही हुआ है। आचारांग मुनि के लिए मूलत: अचेलता का ही समर्थन करता है। अपवाद रूप में वह लज्जा-निवारणार्थ गुह्यांग ढकने के लिए एक कटि वस्त्र और शीत सहन नहीं कर सकने पर शीतकाल में एक या दो अतिरिक्त वस्त्र ग्रहण करने की अनुमति देता है-उन्हें भी ग्रीष्मकाल में त्याग देने की बात कहता है। इस प्रकार उसमें मुनि के लिए अधिकतम तीन और साध्वी के लिए अधिकतम चार वस्त्रों को ग्रहण करने का ही विधान है। आचारांग और समवायांग में मुनि को वस्त्र धारण करने की अनुमति तीन कारणों से दी गई है - 1. इन्द्रिय विकार, 2. लज्जाशीलता और 3. परिषह (शीत) सहन करने में असमर्थता । वस्तुत: महावीर के संघ में दीक्षित हुए युवा मुनियों को इन्द्रियविकार और लोक-लज्जा के निमित्त प्रारम्भ में अधोवस्त्र धारण करना पड़ता होगा, जिसको बाद में वे त्याग देते होंगे। स्वयं महावीर द्वारा प्रारम्भ में एकवस्त्र ग्रहण करना भी यही सूचित करता है। यद्यपि परम्परागत मान्यताएँ कुछ भिन्न हैं। भगवती आराधना जैसे दिगम्बरों जैन एकता का प्रश्न : ११ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के द्वारा मान्य ग्रन्थों में भी अपवादरूप से मुनि के वस्त्र ग्रहण करने का विधान है। ऐतिहासिक दृष्टि से यह बात भी महत्त्वपूर्ण है कि अचेलता और पूर्ण अपरिग्रह का समर्थक दिगम्बर मुनि वर्ग भी परिस्थितिवश परिग्रह के पंक में फँस गया। चौथी शताब्दी के पश्चात् से अधिकांश दिगम्बर मुनि न केवल जिनालयों में निवास करने लगे अपितु अपने नाम से जमीन आदि का दान प्राप्त करने लगे - और वस्त्र धारण कर राजसभाओं में जाने लगे। इन्हीं से दिगम्बर सम्प्रदाय में भट्टारकों की परम्परा का विकास हुआ है। मध्ययुग में इन भट्टारकों का ही सर्वत्र प्रभाव था और अचेलक दिगम्बर मुनि प्राय: विलुप्त ही हो गये थे। उनकी उपस्थिति के कोई ऐतिहासिक प्रमाण उपलब्ध नहीं होते हैं। दिगम्बरत्व का समर्थन तो बराबर बना रहा किन्तु व्यवहार में उसका प्रचलन नहीं रह सका। वस्तुत: जिन-मुद्रा को धारण करना सहज नहीं है। आज से 40-50 वर्ष पूर्व तक सम्पूर्ण भारत में दिगम्बर मुनियों की संख्या दस भी नहीं थी। वर्तमान नग्न मुनियों की परम्परा का प्रारम्भ 100 वर्ष से अधिक पुराना नहीं है वस्तुत: साधना एवं तप-त्याग के ऐसे उच्चतम आदर्श कभी लोक व्यवहार्य नहीं रहे है। मनुष्य चाहे अपनी सुविधाभोगी वृत्ति के कारण हो अथवा उनकी अव्यवहार्यता के कारण हो, उनसे नीचे अवश्य उतरा है। श्वेताम्बर मुनिवर्ग तो आगमोक्त मुनि आचार के शिखर से धीरे-धीरे काफी नीचे उतर आया है, किन्तु दिगम्बर मुनि भी अनेक बातों मे उस ऊँचाई पर स्थित नहीं रह सके, उन्हें भी नीचे उतरना पड़ा है। वस्तुत: यह सब हमें यह बताता है कि मुनिधर्म की साधना के क्षेत्र में कुछ स्तर और उनके आरोहण का क्रम स्वीकार करना आवश्यक है । मुनि की निर्वस्त्रता की पोषक दिगम्बर परम्परा भी ऐलक एवं क्षुल्लक के रूप में दो वर्गों को स्वीकार करती है जो केवल वस्त्र के अतिरिक्त अन्य आचार-नियमों का पालन करने में दिगम्बर मुनि के समान ही होते हैं और दिगम्बर समाज में उनकी मुनिवत् प्रतिष्ठा भी होती है। विवाद का प्रश्न मात्र इतना है कि उन्हें उच्च श्रेणी का गृहस्थ माना जाये या प्राथमिक श्रेणी का मुनि । निवस्त्रता के आत्यान्तिक आग्रह के कारण दिगम्बर परम्परा उन्हें मुनि मानने को तैयार नहीं होती- किन्तु यदि तटस्थ भाव से देखें तो उनके लिए क्षुल्लक' शब्द का प्रयोग स्वयं इस बात को सूचित करता है कि वे मुनियों के वर्ग के सदस्य हैं । क्षुल्लक शब्द का अर्थ छोटा' है, चूँकि वे मुनि जीवन की साधना के प्राथमिक स्तर पर हैं, अत: उन्हें क्षुल्लक कहा जाता है। क्षुल्लक शब्द छोटे मुनि का सूचक है, छोटे गृहस्थ का नहीं। श्वे. मान्य आगम उत्तराध्ययन में एक क्षुल्लकाध्ययन नाम से जो अध्याय है, वह जैन एकता का प्रश्न : १२ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि आचार को ही अभिव्यक्त करता है। इसलिए क्षुल्लक मुनि ही होता है, गृहस्थ नहीं। श्वेताम्बर आचार्यों ने क्षुल्लक का अर्थ बालवय का मुनि किया है, यह उचित नहीं लगता है। उसका अर्थ साधना के प्राथमिक स्तर पर स्थित मुनि करना अधिक युक्ति-संगत है। ऐसा लगता है कि महावीर के संघ में निर्वस्त्र और सवस्त्र दोनों ही प्रकार के मुनि थे। श्वेताम्बर आगम तो जिनकल्प और स्थविर कल्प के नाम से दो विभाग स्वीकार करते ही हैं । दिगम्बर परम्परा को भी यह मानने मे कोई आपत्ति नहीं होगी कि महावीर के संघ में दिगम्बर मुनियों के अतिरिक्त ऐलक और क्षुल्लक भी थे। मात्र वस्त्रधारी होने से ऐलक और क्षुल्लक गृहस्थ नहीं कहे जा सकते । गृहस्थ तो घर में निवास करता है, जिसने घर, परिवार आदि का परित्याग कर दिया है वह तो अनगार है, प्रव्रजित है, मुनि है। अत: एलक, क्षुल्लक ये मुनियों के वर्ग हैं, गृहस्थों के नहीं। ऐसा लगता है कि महावीर ने सामायिक चारित्र और छेदोपस्थापनीयचारित्र का जो भेद किया था, उसका सम्बन्ध मुनियों के दो वर्गों से होगा। जैनेतर साहित्य भी इस बात की पुष्टि करता है कि महावीर के समय में ही निर्ग्रन्थों में सवस्त्र और निर्वस्त्र दोनों वर्ग थे। बौद्ध पिटक साहित्य में 'निगंथा एक साटका' के रूप में एक वस्त्र धारण करने वाले निर्ग्रन्थों का उल्लेख है । आचारांग और उत्तराध्ययन में मुनि के वस्त्रो के प्रसंग में 'सान्तरोत्तर' शब्द का प्रयोग हुआ है जो इस बात का प्रमाण है कि कुछ निर्ग्रन्थ मुनिएक अधोवस्त्र (कटिवस्त्र) या अन्तरवासक के साथ उत्तरीय रखते थे। श्वे. परम्परा परम्परा द्वारा “सान्तरोत्तर" का अर्थ रंगीन या बहुमूल्य वस्त्र करना उचित नहीं। ऐसा लगता है कि जहाँ महावीर के मुनि या तो नग्न रहते थे या कटिवस्त्र धारण करते थे, वहाँ पार्श्वनाथ की परम्परा के साधु कटिवस्त्र के साथ उत्तरीय भी धारण करते थे। आचारांग की वस्त्र सम्बन्धी यह व्यवस्था ऐलक और क्षुल्लक की वस्त्र-मर्यादाओं के रूप में दिगम्बर समाज में आज भी मान्य है। . . इन सब चर्चाओं के आधार पर हम मनि के वस्त्र सम्बन्धी इस विवाद को इस प्रकार हल कर सकते हैं कि प्राचीन परम्परा के अनुरूप मुनियों के दो वर्ग हों - एक निर्वस्त्र और दूसरा सवस्त्र । दिगम्बर परम्परा यह आग्रह छोड़े कि वस्त्रधारी मुनि नहीं है और श्वेताम्बर परम्परा निर्वस्त्र मुनियों की आचारगत श्रेष्ठता को स्वीकार करे। जहाँ तक मुनि आचार के दूसरे नियमों का प्रश्न है - यह सत्य है कि श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों की परम्पराओं में मूलभूत आगमिक मान्यताओं से काफो स्खलन हुआ है। आज कोई भी पूरी तरह से आगम के नियमों का पालन नहीं कर रहा है। अत: निष्पक्ष विद्वान् जैन एकता का प्रश्न : १३ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम ग्रन्थ और युगीन परिस्थितियों को दृष्टिगत रखकर वस्त्र-पात्र सम्बन्धी एक आचार-संहिता प्रस्तुत करे जिसे मान्य कर लिया जाये। स्त्रीमुक्ति का प्रश्न और समाधान श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्पराओं का दूसरे विवाद का मुद्दा सवस्त्रमुक्ति या स्त्रीमुक्ति का है। जहाँ तक इस सम्बन्ध में आगमिक मान्यता का प्रश्न है श्वेताम्बर आगम साहित्य इस बात को स्वीकार करता है कि स्त्री और सवस्त्र की मुक्ति सम्भव है। यद्यपि कुन्दकुन्दाचार्य के ग्रन्थों और तत्त्वार्थ की दिगम्बर आचार्यों की टीकाओं में स्त्रीमुक्ति का निषेध है। किन्तु कुछ विद्वानों के अनुसार दिगम्बर ग्रन्थ मूलाचार और धवला टीका में इसके समर्थक पद्य मिले हैं। यद्यपि इस समस्या का हल इन ग्रन्थों के आधारों पर नहीं खोजा जा सकता, क्योंकि उत्तराध्ययन के एक अपवाद को छोड़कर श्वेताम्बर और दिगम्बर साहित्य के प्राचीनतम अंश प्राय: इस सम्बन्ध में स्पष्टरूप से कुछ भी प्रकाश नहीं डालते हैं, जबकि सम्प्रदाय भेद के बाद रचित परवर्ती साहित्य में दोनों अपने पक्ष की पुष्टि करते हैं। ज्ञाता-धर्म-कथा जिसमें मल्ली का स्त्री तीर्थंकर के रूप में चित्रण है तथा अन्तकृतदशा, जिसमें अनेक स्त्रियों की मुक्ति के उल्लेख हैं, विद्वानों की दृष्टि में संघ-भेद के बाद की रचनाएँ हैं। निष्पक्ष रूप से यदि विचार किया जाये तो बात स्पष्ट है कि बंधन और मुक्ति का प्रश्न आत्मा से सम्बन्धित है, न कि शरीर से । बन्धन और मुक्ति दोनों आत्मा की होती है, शरीर की नहीं । पुनः श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्पराएँ इस विषय में भी एकमत हैं कि आत्मा स्वरूप: नस्त्री है और न पुरुष। साथ ही आत्मा का बन्धन और मुक्ति राग-द्वेष या कषाय की उपस्थिति और अनुपस्थिति पर निर्भर है-उसका स्त्रीपर्याय से कोई से सीधा सम्बन्ध नहीं है। वस्तुत: जो भी राग-द्वेष की ग्रन्थियों से मुक्त होंगे, जो वीतराग और क्षीण कषाय होंगे, और जो निर्वेद अर्थात् स्त्रीत्वपुरुषत्व की वासना से रहित होंगे, वहीं मुक्त होंगे। मुक्ति का निकटतम कारण राग-द्वेष रूपी कर्म-बीज का नष्ट होना और वीतरागता का प्रकट होना है। अत: यही मानना उपयुक्त होगा कि जो भी वीतराग हो सकेगा वही मुक्त होगा - यहाँ स्त्री का, सवस्त्र मुनि या गृहस्थ का, या अन्य परम्पराओं के वेश धारण करने वालों का राग समाप्त होगा या नहीं, इस विवाद में पड़ना न तो उचित है और न आवश्यक है-जो भी वीतराग एवं निष्कषाय हो सकेगा वह मुक्त हो सकेगा-यदि स्त्री पर्यायधारी आत्मा के कषाय क्षीण हो जायेंगे तो वह मुक्त हो जायेगी, यदि नहीं हो सकेंगे तो नहीं हो सकेगी। जैन एकता का प्रश्न : १४ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इससे आगे बढ़कर यह कहना कि उसके कषाय समाप्त ही नहीं होंगे, हमें ऐसा कोई आग्रह नहीं रखना चाहिए । पुन: श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराएँ आज यह मानती हैं कि अभी 82 हजार वर्ष तक तो इस भरतक्षेत्र से कोई मुक्त होनेवाला नहीं है। साथ ही दोनों के अनुसार उन्नीस हजार वर्ष बाद जिनशासन का विच्छेद हो जाना है - अर्थात् दोनों सम्प्रदायों को भी समाप्त हो जाना है। इसका अर्थ यह हुआ कि दोनों सम्प्रदायों के जीवनकाल में यह विवादास्पद घटना घटित ही नहीं होना है तो फिर उस सम्बन्ध में व्यर्थ विवाद क्यों किया जायें। क्या इतना मान लेना पर्याप्त नही है-जो भी राग-द्वेष की वृत्तियों से ऊपर उठ सकेगा क्रोध, मान, माया और लोभ रूपी कषायों को जीत सकेगा, वही मुक्ति का अधिकारी होगा। कहा भी है - 'कषायमुक्ति किलमुक्तिरेव'। केवली कवलाहार का प्रश्न और समाधान श्वेताम्बर एवं दिगम्बर परम्पराओं में विवाद का तीसरा मुद्दा केवली के आहारविहार से सम्बन्धित है। इस सम्बन्ध में वैज्ञानिक और व्यवहारिक दृष्टि से श्वे. परम्परा का मत अधिक युक्तिसंगत लगता है, क्योंकि शरीर के लिए आहार आवश्यक है यदि केवली शरीर-धारी है तो उसके लिए भी आहार आवश्यक है। यद्यपि केवली या सर्वज्ञ को अलौकिक व्यक्तित्व से युक्त मान लेने पर यह बात भी तर्कगम्य लगती है कि उसमें आहार आदि की प्रवृत्ति नही होनी चाहिए क्योंकि आहार, वचन आदि की प्रवृत्तियाँ इच्छापूर्वक होंगी, किन्तु जो वीतराग हैं, अनासक्त हैं, उनकी कोई इच्छा नहीं हो सकती। वे तो शरीर से भी निरपेक्ष है, अत: उनमें शरीर-रक्षण का भी कोई प्रयत्न होगा ऐसा मानना भी उचित नहीं है। आश्चर्यजनक यह है कि श्वेताम्बर आगम-साहित्य में भी केवल भगवती के एक प्रसंग-जो प्रक्षिप्त ही लगता है, को छोड़ कर कहीं ऐसा स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता है जिसमें कैवलय की प्राप्ति के पश्चात् महावीर कहीं आहार लेने गये हों या उनके लिए आहार लाया गया हो या उन्होंने आहार ग्रहण किया हो-यह बात श्वेताम्बर परम्परा के लिए भी विचारणीय अवश्य है। आखिर ऐसे उल्लेख क्यों नहीं मिलते? . यद्यपि भावनात्मक एकता की दृष्टि से इस विवाद को हल करना हो तो इतना मान लेना पर्याप्त होगा कि केवली स्वत: आहार आदि की प्राप्ति की इच्छा या प्रयत्न नहीं करता है। वर्तमान सन्दर्भो में इस बात को अधिक महत्त्व देना इसलिए भी उचित नहीं है कि दोनों के अनुसार अगले 82000 वर्ष तक भरतक्षेत्र में कोई केवली नहीं जैन एकता का प्रश्न : १५ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होगा। मूर्तिपूजा का प्रश्न जैनधर्म के सम्प्रदायों में एक मुख्य विवादास्पद प्रश्न मूर्तिपूजा के सम्बन्ध में है। दिगम्बर सम्प्रदाय के तारणपन्थी और श्वेताम्बर सम्प्रदाय के स्थानकवासी एवं तेरापन्थी मूर्तिपूजा का विरोध करते हैं। मूर्तिपूजा को लेकर अधिक महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह है कि जैनधर्म में मूर्तिपूजा का प्रचलन कब से हुआ ? यह बात स्पष्ट है कि ऐतिहासिक दृष्टि से प्राचीनतम आगम आचारांग, सूत्रकृतांग, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन आदि में मूर्ति या मूर्तिपूजा के सन्दर्भ में कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं पाये जाते हैं । अन्तकृत आदि कुछ परवर्ती आगमों में यक्ष आदि की प्रतिमाओं और उनके पूजन का उल्लेख तो है किन्तु जिन-प्रतिमा के पूजन का कोई उल्लेख नहीं है। देवलोकों में शाश्वत जिनप्रतिमा सम्बन्धी उल्लेख तथा सूर्याभदेव-और द्रौपादी के द्वारा जिन-प्रतिमा के पूजन सम्बन्धी उल्लेख समवायांग भगवती, ज्ञाताधर्मकथा एवं राजप्रश्नीय में प्राप्त होते हैं, किन्तु विशाल आगम-साहित्य की दृष्टि से ये सब उल्लेख भी अत्यल्प ही कहे जा सकते हैं। दूसरे विद्वानों द्वारा इन आगम ग्रन्थों का रचनाकाल आचारांग आदि की अपेक्षा काफी परवर्ती माना जाता है। जिन-प्रतिमा के पूजन के सम्बन्ध में विस्तृत निर्देश हमें उत्तरकालीन रचनाओं, आगमिक नियुक्तियों, चूर्णियों, भाष्यों, वृत्तियों और टीकाओं में ही उपलब्ध होते हैं। महावीर के पूर्व जिन-प्रतिमाओं के अस्तित्व का कोई साहित्यिक एवं पुरातात्विक साक्ष्य भी उपलब्ध नहीं है। यद्यपि हड़प्पा से प्राप्त एक नग्नपुरुष की छोटी सी मृत्तिका-मूर्ति को जिन-प्रतिमा कहा जाता है किन्तु वह जिनप्रतिमा है, यह बात विवादास्पद ही है। महावीर की जीवनचर्या के सम्बन्ध में आचारांग, कल्पसूत्र आदि में जो प्राचीनतम उल्लेख उपलब्ध हैं उसमें उनके किसी जिन-मन्दिर में जाने या जिनमूर्ति के पूजन का उल्लेख नहीं है, यद्यपि यक्षायतनों और यक्ष-चैत्यों में उनके जाने और विश्राम करने के उल्लेख प्रचुरता से मिलते हैं । ईसा पूर्व दूसरीतीसरी शताब्दी तक रचित जैन ग्रन्थ जिन प्रतिमा और उसके पूजन के सम्बन्ध में मौन ही हैं। दिगम्बर परम्परा के कुन्दकुन्द आदि के आगमरूप मान्य ग्रन्थों में जिन-प्रतिमा सम्बन्धी क्वचित् निर्देश हैं, किन्तु ये सभी ईसा के बाद की रचनाएँ हैं। जैनधर्म में मूर्तिपूजा की प्राचीनता को सिद्ध करने के लिए यह कहा जाता है कि महावीर के जीवनकाल में ही उनकी चन्दन की एक प्रतिमा का निर्माण हुआ था, जैन एकता का प्रश्न : १६ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिसमें उन्हें राजकुमार के रूप में तपस्या करते हुए अंकित किया गया था। चूँकि यह प्रतिमा उनके जीवनकाल में ही निर्मित हुई थी, इसलिए इसे जीवन्तस्वामी की प्रतिमा कहा गया है। जीवन्तस्वामी की प्रतिमा का उल्लेख संघदासगणिकृत वसुदेवहिण्डी, जिनदासकृत आवश्यकचूर्णि और हरिभद्रसूरि की आवश्यकवृत्ति में है, पर ये सभी परवर्ती काल अर्थात् ईसा की पाँचवी, छठी, सातवीं और आठवीं शताब्दी की रचनाएँ हैं। उनके कथन की प्रामाणिकता को केवल श्रद्धा के आधार पर ही स्वीकार किया जा सकता है । जीवन्तस्वामी की प्राप्त सभी प्रतिमाएँ पुरातात्त्विक दृष्टि से पाँचवीं-छठी शताब्दी की हैं। जीवन्तस्वामी की प्रतिमा के सम्बन्ध में डॉ. मारुतिनन्दनप्रसाद तिवारी का यह निष्कर्ष द्रष्टव्य है “पाँचवी-छठी शताब्दी ईसवी के पहले जीवन्तस्वामी के सम्बन्ध में हमें किसी प्रकार की ऐतिहासिक सूचना प्राप्त नहीं होती है।" इस प्रकार कोई भी ऐसा साहित्यिक और पुरातात्विक साक्ष्य प्राप्त नहीं होता है, जिसके आधार पर महावीर के पूर्व अथवा उनके जीवनकाल में जिन-प्रतिमा की उपस्थिति को सिद्ध किया जा सके। यद्यपि पुरातात्विक साक्ष्यों के आधार पर निश्चित रूप से यह कहा जा सकता है कि जिन-प्रतिमा का निर्माण महावीर के निर्वाण के लगभग डेढ़ सौ-दो सौ वर्ष पश्चात् अर्थात् ईसा पूर्व की तीसरी, चौथी शताब्दी में हो गया था। सबसे प्राचीन उपलब्ध जिन-प्रतिमा लोहनीपुर की है जो पटना संग्रहालय में सुरक्षित है। यह प्रतिमा लगभग ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी की है । यद्यपि मूर्ति का शिरोभाग अनुपलब्ध है, किन्तु मूर्ति की दिगम्बरता और कायोत्सर्ग मुद्रा उसे जिन-प्रतिमा सिद्ध करती है। मौर्ययुगीन चमकदार आलेप के अतिरिक्त उसी स्थल के उत्खनन से प्राप्त मौर्ययुगीन ईंटें एवं एक रजत आहत मुद्रा भी मूर्ति के मौर्यकालीन होने के समर्थक साक्ष्य हैं। इसी काल की कुछ अन्य जिन-प्रतिमाएँ एवं तत्सम्बन्धी हाथी-गुफा के शिलालेख भी उपलब्ध हैं। ईसा पूर्व दूसरी और प्रथम शताब्दी की तो अनेक जिन-प्रतिमाएँ और आयागपट मथुरा से प्राप्त हुए हैं, जिनसे यह स्पष्ट रूप से सिद्ध होता है कि जैनधर्म में मूर्तिपूजा का प्रचलन ईसा से लगभग तीन सौ वर्ष पूर्व प्रारम्भ हो गया था। चाहे यह बात विवादास्पद हो सकती है कि महावीर ने जिन-प्रतिमा के पूजन का उपदेश दिया था या नहीं? किन्तु यह निर्विवाद सत्य है कि जैनधर्म में जिन-प्रतिमा के निर्माण और पूजन की परम्परा लगभग बाईस सौ, तेईस सौ वर्षों से निरन्तर चली आ रही है। पुन: जिनप्रतिमाएँ और जिन-मन्दिर, जैनधर्म, जैन संस्कृति और इतिहास की एक महत्त्वपूर्ण जैन एकता का प्रश्न: १७ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धरोहर हैं, जिसे अस्वीकार करने का अर्थ अपने इतिहास और संस्कृति को ही अस्वीकार करना होगा। ___यह भी एक ऐतिहासिक तथ्य है कि जैनधर्म की श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही परम्पराओं में मूर्तिपूजा का विरोध सोलहवीं शताब्दी से प्रारम्भ हुआ। मूर्तिपूजाविरोधी यह आन्दोलन इस्लामधर्म से प्रभावित है। इस बात की पुष्टि इस तथ्य से भी होती है कि जैनधर्म में मूर्तिपूजा का विरोध करने वाले लोकाशाह और तारण स्वामी दोनों ही मुस्लिम शासकों के राज्याधिकारी थे। किन्तु यह माननाभी कि केवल मुस्लमानों के प्रभाव के कारण जैनधर्म में मूर्तिपूजा का विरोध प्रारम्भ हुआ, पूरी तरह सत्य नहीं होगा। जैनधर्म में मूर्तिपूजा के विरोध के कुछ आन्तरिक कारण भी थे। मूर्तिपूजा के नाम पर बढ़ता हुआ आडम्बर, हिंसा का समर्थन और जटिल कर्मकाण्ड भी इस विरोध में सहायक बने हैं। मूर्तिपूजा के समर्थक पं. बनारसीदास जी ने स्वयं इसी युग में मूर्तिपूजा के नाम पर होने वाली हिंसा और कर्मकाण्ड का विरोध किया था। मूर्तिपूजा सम्बन्धी जो विवाद आज जैन सम्प्रदायों में है, उसका निर्णय यदि शास्त्र की अपेक्षा सामान्य बुद्धि के आधार पर करें तो किसी एक समन्वयात्मक निष्कर्ष पर पहुँचा जा सकता है। उस सम्बन्ध मे उसकी उपयोगिता को ही आधार बनाकर चलना होगा। निष्पक्ष शोधों से यह बात स्पष्टरूप से प्रमाणित हो चुकी है कि जैनधर्म मे मूर्ति और मूर्तिपूजा का विकास क्रमिकरूप से हुआ है। पुरातात्विक और साहित्यिक साक्ष्य इसके प्रमाण हैं। दूसरे यह भी सत्य है कि मूर्तिपूजा को लेकर परवर्तीयुग में जितने आडम्बर और कर्मकाण्ड खड़े किये गये हैं, उन्होंने जैनधर्म की मूलात्मा पर कुठाराघात किया है। उन्होंने एक सहज एवं सरल साधना पद्धति को जटिल बनाया है। मूर्तिपूजा के साथ जुड़ने वाले इस कर्मकाण्ड पर ब्राह्मण संस्कृति और भक्तिमार्ग का प्रभाव है। चक्रेश्वरी, मणिभद्र एवं यक्ष-यक्षी, भैरव आदि की पूजा एवं यज्ञ जैन-सिद्धान्तों की मूलात्मा के साथ मेल नहीं खाते हैं । यद्यपि जैनों की आस्था को दूसरी ओर केन्द्रित होता देखकर जैनाचार्यों को यह सब करना पड़ा था। यह निर्विवाद तथ्य है कि मानव जाति के इतिहास में प्रारम्भ से ही मूर्तियों और प्रतिकृतियों का महत्व रहा है । आदि-युग के शैलचित्र और गुहाचित्र इस बात के प्रमाण हैं कि मानवीय सभ्यता के प्रारम्भ से ही प्रतिकृतियों के निर्माण ने मनुष्य को आकर्षित किया है। प्रतीक पूजा का इतिहास बहुत पुराना है। वस्तुत: मानवीय सभ्यता जैन एकता का प्रश्न ः १८ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतीकात्मककला के सहारे ही विकसित हुई है। हमारी भाषा और हमारे शब्द-संकेत, जिनके आधार पर हमारे धर्मशास्त्र रचे गए है, मानवीय भावनाओं और विचारों की अभिव्यक्ति की प्रतीकात्मक शैली है। चाहे हम वृक्षों की पूजा करें, स्तूपों की पूजा करें, चाहे शास्त्रों की पूजा करें, सभी प्रतीक पूजा के रूप में है। वास्तविकता यह है कि मानव अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति के लिए प्रतीकों, चित्रों और प्रतिकृतियों (मूर्तियों) का उपयोग करता रहा है। मात्र यही नहीं वह अपने पूज्यजनों के प्रतीक चिहों और उनकी प्रतिकृतियों के प्रति प्राचीनकाल से ही श्रद्धा और सम्मान का भाव रखता आया है । आदिम जातियों में तथा हिन्दू धर्म में प्रतीकपूजा प्रचलित है ही, किन्तु मूर्तिपूजा के कट्टर विरोधी इस्लाम धर्म में भी किसी न किसी रूप में प्रतीक पूजा प्रचलित है। काबे के पवित्र पत्थर का चुम्बन, हजरत मुहम्मद के पवित्र बाल के प्रति मुस्लिम सम्प्रदाय की आस्था, कब्र-पूजा और मुहर्रम ये सब प्रतीकपूजा के ही तो रूप हैं । अधिक क्या मूर्तिपूजा के विरोधी जैनधर्म के स्थानवासी, तेरापंथी और तारणपंथी सम्प्रदायों के अनुयायियों के घरों में भी अपने पूज्य माता-पिताओं, धर्म-गुरुओं और साधु-साध्वियों के चित्रो को सुविधा से देखा जा सकता है। स्थानकवासी और तेरापंथी परम्परा के अधिकांश घर अब अपने आचार्यों के चित्रों से मंडित हैं और उन चित्रों के प्रति उनके मन में श्रद्धा और आदर का भाव है । लेखक ने स्वयं अनेक स्थानों पर स्थानकवासी और तेरापंथी आचार्यों के चित्रों के समीप उनके अनुयायियों को धूपदीपदान करते देखा है। अनेक स्थानकवासी, तेरापंथी और तारणपंथी तीर्थयात्रा करते हुए आसानी से देखे जा सकते हैं। यद्यपि निर्गुणोपासना या भावाराधना एक उच्च स्थिति है किन्तु मूर्ति का पूर्ण विरोध समुचित नहीं है । मूर्तियों और चित्रो के प्रति मनुष्य का आकर्षण और श्रद्धाभाव स्वाभाविक है। यह भी सही है कि मनुष्यों की भावनाओं के पवित्रीकरण एवं वीतराग के गुणों का स्मरण दिलाने में मूर्ति निमित्त कारण अवश्य है। वह ध्यान का आलम्बन है तथा हमारे हृदयों को पवित्र भावनाओं और श्रद्धा से आपूरित करती है । अत: मूर्ति का एकान्तिक विरोध भी उचित नहीं हैं। यद्यपि मूर्ति को मूर्तिरूप में ही स्वीकार करना चाहिए। वह वीतराग प्रभु या भगवान् नहीं। मूर्ति भगवान् है-यह मानने के कारण अनेक अन्धविश्वासों को बढ़ावा मिलता है। मूर्तियों के सम्बन्ध में अनेक चमत्कारिक घटनाएँ प्रचलित हैं, वे चाहे एक बार हमारी श्रद्धा को आन्दोलित करती हों किन्तु जैनधर्म की साधना और उपासना से उसका कोई सम्बन्ध नहीं है। मूर्तियों की चमत्कारिकता की जैन एकता का प्रश्न : १९ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बात इसलिए बुद्धिगम्य नहीं है कि जिसकी वे प्रतिमाएँ हैं, वह तो वीतराग है- उसका इस चमत्कार प्रदर्शन आदि से कोई सम्बन्ध नहीं है। यदि यह कहा जाए कि जिन शासन रक्षक देव ऐसा करते हैं, तो वे उन अतिशयक्षेत्रों की प्रतिमाओं, जिन्हें लेकर दोनों पक्ष न केवल झगड़ते हैं, अपितु उस प्रतिमा के साथ भी अशोभनीय कृत्य करते हैं, के सम्बन्ध में कोई ऐसा चमत्कार क्यों नहीं दिखाते, जिससे विवाद शांत हो जाये और स्थिति प्रकट हो जाये । क्या जिन और जिनशासन की इस फजीहत को देखकर उन्हें तरस नहीं आता ? अतः मूर्ति को चमत्कार से नहीं, साधना से जोड़ें। I जहाँ तक श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्पराओं की मूर्तिओं की भिन्नता के समाधान का प्रश्न है, यह सत्य है कि प्रारम्भ में श्वेताम्बर जैन भी नग्न मूर्तियों की ही पूजा करते थे। मथुरा की दिगम्बर मूर्तियाँ श्वेताम्बर आचार्यों के द्वारा ही प्रतिष्ठित थीं । उनके गच्छ और शाखाओं के नाम नन्दी और कल्पसूत्र की पट्टावलियों के अनुरूप ही हैं । वहाँ जो कण्ह नामक जैन मुनि की मूर्ति मिली है, कटिवस्त्र के चिन्ह से युक्त नहीं है, किन्तु नग्नता छिपाने के लिए हाथ पर वस्त्रखण्ड के साथ ही आर्यिका की मूर्ति भी है जो सवस्त्र है । श्वेताम्बर दिगम्बर मूर्तियो की भिन्नता संघभेद के बहुत बाद की घटना है । आभूषण, अलंकरण और स्फटिक नेत्र आदि का प्रयोग और भी बाद में हुआ है । निष्पक्ष दृष्टि से विचार करने पर यह लगता है कि वीतराग प्रतिमा पर यह अंग प्रशोभन उचित नहीं है । मूर्ति और मन्दिर के साथ जो परिग्रह जुड़ता जा रहा है वह युक्तिसंगत नहीं है । श्वेताम्बर मुनि श्री न्यायविजय जी ने भी इसका विरोध किया था । आज यही सब विवादों का मुख्य कारण बन रहा है । एकता की दृष्टि से यही अच्छा विकल्प होगा कि पद्मासन की ध्यान मुद्रायुक्त प्रतिमाओं को ही अपनाया जाए और उस पर कन्दोरा, लंगोट, स्फटिक नेत्र आदि का उपयोग न हो । यद्यपि इसे तभी अपनाना होगा, जबकि दोनों सम्प्रदाय अपना विलीनीकरण कर लें अन्यथा ऐसी मूर्तियों को लेकर जैसे विवाद आज है, वैसे विवाद बाद में भी उठ खड़े होंगे। जहाँ तक मूर्तिपूजा सम्बन्धी विधि-विधान का प्रश्न है, उसमें भी आडम्बरवाद ही बढ़ा है, अत: अच्छा यही होगा कि दिगम्बर परम्परा के तेरापंथ में जो अचित द्रव्यों पूजा का विधान है उसे स्वीकार कर लिया जाये । द्रव्य-पूजा में हिंसा अल्पतम हो, यह बात ध्यान में रखना आवश्यक है। जिन मन्दिरों में यज्ञों को तो तत्काल बन्द कर जैन एकता का प्रश्न : २० Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देना चाहिए, यह पूर्णत: ब्राह्मण संस्कृति का प्रभाव है। मात्र यही नहीं द्रव्य-पूजा की अपेक्षा भावपूजा पर और प्रभु-भक्ति के माध्यम से प्रभु के गुणों को जीवन में उतारने का लक्ष्य अधिक रहे। जिन-प्रतिमा हमारी भावनाओं की विशुद्धि का साधन है और एक साधन के रूप में उसका स्थान है। यहाँ यह भी ध्यान रखना होगा कि मूर्ति और उसकी द्रव्यपूजा की आवश्यकता, साधना और ज्ञान के प्राथमिक स्तर पर उसी प्रकार है, जिस प्रकार वर्णमाला का अर्थबोध कराने के लिए प्राथमिक स्तर पर चित्रों की सहायता अपेक्षित है। मुखवसित्रका के प्रश्न का समन्वय श्वे. सम्प्रदायों में एक विवाद मुखवस्त्रिका को लेकर भी है । स्थानकवासी और श्वेताम्बर-तेरापंथी डोरा डालकर उसे सदैव ही मुख पर बाँधे रहते हैं। मुखवस्त्रिका का विकास महावीर के परवर्ती काल में हुआ है। ऐसा कोई भी ठोस प्रमाण नहीं है, जिससे सिद्ध हो कि महावीर ने मुखवस्त्रिका रखी थी। आचारांग के प्राचीनतम अंश प्रथम श्रुतस्कन्ध में मुखवस्त्रिका का उल्लेख नहीं है । यद्यपि लगभग दो हजार वर्ष पूर्व से इसका प्रयोग श्वेताम्बर परम्परा में होता रहा है, ऐसा श्वेताम्बर आगम साहित्य से सिद्ध होता है । तथापि डोरा डालकर बाँधने के सम्बन्ध में ठोस ऐतिहासिक प्रमाण 1718वीं के पूर्व के नहीं मिले हैं। मुखवस्त्रिका के उपयोग का मुख्य उद्देश्य तो वायुकायिक जीवों की रक्षा है । डोरा डालकर उसका प्रयोग करना मात्र एक सुविधा की बात है। एकता की दृष्टि से इस समस्या का हल यही हो सकता है-प्रवचन आदि के प्रसंगों पर उसे बाँधा जाये, अन्य अवसरों पर बातचीत करते समय उसका सावधानीपूर्वक उपयोग किया जाये। दया-दान के विवाद का प्रश्न - श्वेताम्बर-तेरापंथ का जैन समाज के अन्य सम्प्रदायों से मुख्य विवाद दयादान के प्रश्न को लेकर है । यद्यपि आज यह कहा जाता है कि आचार्य भिक्षु ने स्थानकवासी समाज के साधुओं मे आई आचारगत विकृतियों को दूर करने के लिए क्रान्ति की थी; चाहे इस बात में आंशिक सत्यता भी हो किन्तु मूल बात तो विचारगत भिन्नता की थी। मूल प्रश्न यही था कि लोक-मंगल के उन कार्यों को, जिनमें अल्पतम हिंसा की भी सम्भावना हो, धर्म के अर्न्तगत माना जाये अथवा नहीं ? आचार्य भिक्षु ने ऐसे कार्यों को स्पष्टरूप से धर्म साधना के अन्तर्गत नहीं माना था। चाहे उनकी इस , जैन एकता का प्रश्न : २१ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मान्यता के पीछे निरपेक्ष अहिंसा के सिद्धान्त का और तत्सम्बन्धी सूत्रकृतांग आदि के कुछ आगमिक प्रमाणों का बल भी हो, किन्तु यह अवधारण मनुष्य की जनकल्याणकारी प्रवृत्तियों के विरोध में जाती है और लोक व्यवहार में जैनधर्म को आलोचना का विषय बनाती है। यही कारण है कि तेरापन्थ परम्परा के व्यवहारकुशल आचार्य तुलसी ने इस वास्तविकता को समझा है और लोक व्यवहार के नाम पर ही सही, लोक कल्याणकारी प्रवृत्तियों के लिए श्रावक संघ को प्रोत्साहित किया है। इस सम्बन्ध में कट्टर तेरापंथियों ने उनकी आलोचना भी की है, किन्तु उन्होंने साहसपूर्वक यह परिवर्तन किया है। राणावास की शिक्षा संस्थाएँ और लाडनूं का आयुर्वेदिक चिकित्सा केन्द्र इस बात का स्पष्ट प्रमाण हैं । आज कोई भी तेरापन्थी मुनि अन्य सम्प्रदाय के मुनियों को आहार देने में या असंयती जनों की सेवा करना पाप है-ऐसा स्पष्ट उद्घोष नहीं करता है। यह एक शुभ लक्षण है-इसके कारण तेरापंथ और दूसरे जैन सम्प्रदायों के बीच की दूरी कम हुई है और वह जन साधारण में आलोचना का विषय बनने से बचा है। व्यवहार के क्षेत्र में सेवा और दान का महत्त्व है, इतना तो हमें मानकर चलना होगा। हमारी एकता का स्वरूप क्या हो ? एकता की बात करना सहज है, किन्तु वह एकता किस प्रकार सम्भव होगी, यह बता पाना कठिन है। एकता का एक रूप तो वह हो सकता है, जिसमें सभी अपने नामरूप खोकर एक हो जायें अर्थात् सभी सम्प्रदाय विलीन होकर जैनधर्म और समाज का एक ही रूप अस्तित्व में रहें । एकता का यह स्वरूप आदर्श तो हो सकता है, किन्तु इसकी व्यवहार्यता सन्देहास्पद है। आज सम्प्रदायों की जड़ें इतनी गहरी जम चुकी हैं कि उन्हें पूरी तरह उखाड़ पाना सम्भव नहीं है। सम्प्रदायों के अस्तित्व के साथ ही लोगों के हित और सम्मान के प्रश्न जुड़े हुए हैं। बाहर से चाहे हम सब एकता की बातें करें, किन्तु भीतर से कोई भी अपने अस्तित्व और अहं को विलीन करने को तैयार नहीं है। जब भी हमें अपने हितों या अस्तित्व के प्रति खतरा नजर आता है, हम धर्म खतरे में है' का नारा लगाना प्रारम्भ कर देते हैं। जब आज हम एक मूर्ति या मन्दिर पर से भी अपना अधिकार छोड़ना नहीं चाहते है, तो क्या यह सम्भव है कि हम अपनी सम्पूर्ण सामाजिक एवं धार्मिक सम्पत्ति को समर्पित करने को सहज ही तैयार हो जाएंगे। जब स्थानकवासी मुनि वर्ग ही अपनी बनाई हुई एकता को कायम नहीं रख सका, तो यह कैसे कहा जा सकता है कि सभी सम्प्रदायों के मुनि और श्रावक अपनी-अपनी धारणाओं को त्याग कर एक सूत्र में बंध जाएँगे। जैन एकता का प्रश्न : २२ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - जैन समाज में और विशेषरूप से स्थानकवासी समाज में अभी भी कुछ ऐसे आचार्य एवं प्रमुख मुनिगण है, जो दूसरे सम्प्रदाय के आचार्यों एवं मुनियों के साथ बैठने, प्रवचन देने, उनसे विचार-चर्चा करने में अपने सम्यकत्व की हानि समझते हैं। हमारा अहं एक पाट से भी सन्तुष्ट नहीं होता-पाट पर पाट लगाया जाता है, जबकि कहीं आर्यिकाओं को और कहीं तो सामान्य मुनियों को भी उनके सम्मुख भूमि पर बैठना होता है। अनेकों में यह ललक होती है कि दूसरे समाज के प्रतिष्ठित आचार्य, विद्वान और राजनेता उनके समीप तो आयें किन्तु उन्हें बराबरी का आसन देने में हम संकोच का अनुभव करते हैं। अनेक बार ऐसी घटनाएँ आलोचना का विषय बनी हैं और उन्होंने पारस्परिक वैमनस्य की खाई को अधिक चौड़ा किया है। अपने को सम्यक्तवी, अपने को संयती (साधु) और दूसरे को असंयती (असाधु), अपने को शुद्धाचारी और दूसरों को शिथिलाचारी मानना या कहना भी भावात्मक एकता की सबसे बड़ी बाधा है, अत: इस दृष्टि को सबसे पहले छोड़ना होगा मुनि आचार में तरतमता महावीर से लेकर आज तक रही है और भविष्य में भी रहेगी किन्तु व्यावहारिक जीवन में यदि इस आधार पर भेदभाव किया जाएगा, तो सामाजिक एकता खण्डित होगी। क्या एक ही सम्प्रदाय के सभी साधु ज्ञान, तपस्या, साधना आदि की दृष्टि से समान होते हैं ? यदि उनमें तरतमता होते हुए भी उनके प्रति समान व्यवहार होता है, तो फिर अन्य सम्प्रदायों के प्रति समादर एवं समानता का व्यवहार क्यों नहीं किया जा सकता। यद्यपि यह प्रसन्नता का विषय है कि आज अधिकांश मुनियों में पारस्परिक मिलन और समादर की भावना बढ़ी है और इसके सुफल भी सामने आये हैं, पुरानी कटुता और आलोचना-प्रत्यालोचना में कमी हुई है, फिर भी अभी प्रयत्नों की आवश्यकता है, जिससे विविध सम्प्रदाय के आचार्य एक दूसरे के निकट आ सके, ताकि भावात्मक एकता की दिशा में हम आगे बढ़ सक। हमारी एकरूपता के आदर्श स्वरूप का प्रस्तुतीकरण तो हमने विवादस्पद प्रश्नों की चर्चा करते हुए किया है, किन्तु उनकी व्यवहार्यता आज कितनी होगी? यह बता पाना कठिन है। अत: एकता के आदर्श की ओर बढ़ने के लिए हमें कुछ चरण निश्चित कर लेने होंगे। प्रथम चरण में हमें वे कार्य करने होंगे, जिनसे पारस्परिक कटुता कम हो। इन सम्बन्ध में निम्न उपाय करने होंगे - (1). मूर्तियों मंदिरों और तीर्थों अथवा अन्य सम्पत्ति सम्बन्धी विवाद यथाशीघ्र निपटा लिये जाएँ। इसके लिए निष्पक्ष लोगों का एक न्यायाधिकरण (पंचायत) बना दिया जाए और सभी विवाद उसे सुपुर्द कर दिये जायें। वह विवादों के तथ्यों की समीक्षा जैन एकता का प्रश्न : २३ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करके अन्त में जो निर्णय दे, उसे मान्य कर लिय जाए। मूर्ति और मन्दिर सम्बन्धी निर्णयों में जैसा कि पूर्व में तीर्थंकर के सम्पादक डा. नेमीचंदजी ने सूचित किया था- पुरातत्वविदों की सहायता ली जा सकती हैं। स्पष्ट एवं तत्थात्मक साक्ष्यों के आधार पर जिन विवादों का निराकरण सम्भव हो, उनके सम्बन्ध में विभाजन की नीति अपना ली जाए। इस सम्बन्ध में यदि दानों सम्प्रदाय के लोग उदारदृष्टि का परिचय दें, तो यह असम्भव नहीं है। (2). परस्पर एक दूसरे की आलोचना, पर्चेबाजी या एक दूसरे के विरूद्ध समाचार पत्रों में लेखन बन्द कर दिया जाए। (3). विभिन्न सम्प्रदायों के आचार्यों के पारस्परिक मिलन एवं सामूहिक प्रवचनों के लिए प्रयास किये जाएँ। वे मिलन के समय एक दूसरे को समान भाव से आदर प्रदान करें। प्रवचन मंच पर सभी को बराबरी का स्थान दिया जाए। (4). महावीर जयन्ती, क्षमापना आदि पर्वो को सामूहिक रूप से मनाया जाये । पर्वतिथियों, संवत्सरी आदि की एकरूपता का प्रयत्न किया जाये। (5). सर्व सम्प्रदायों की भारत जैन महामण्डल या जैन महासभा जैसी कोई संस्था हो, जो पारस्परिक विवादों को सुलझाने के साथ ही जैन समाज के सामान्य हितों की रक्षा का प्रयत्न करे तथा भावी एकता के लिए आधारभूमि प्रस्तुत करे। दूसरे चरण में हमें विभिन्न उपसम्प्रदायों एवं गच्छों के विलीनीकरण का प्रयास करना होगा- अर्थात् स्थानकवासी, श्वेताम्बर मूर्तिपूजक एवं तेरापन्थी अपने आवान्तर मतभेदों को त्यागकर अपना संगठन तैयार करें। इसी चरण में दिगम्बर सम्प्रदाय भी अपने अवान्तर भेदों को समाप्त कर एकरूप हो जाये । यह कार्य दुःसाध्य तो नहीं हैं, किन्तु श्रमसाध्य अवश्य है। प्रबुद्ध मुनियों की देखरेख में निष्पक्ष विद्वानों की ऐसी समिति बना दी जाये, जो प्रत्येक सम्प्रदाय के लिए आगम और वर्तमान परिस्थिति दोनों को ध्यान में रखकर एक आचार संहिता प्रस्तुत करे । जब धीरे-धीरे इम अवान्तर सम्प्रदायों के संगठन सुदृढ़ हो जायें तो अन्त में तीसरे चरण में सर्व सम्प्रदायों के विलीनीकरण के लिए जैनधर्म का सर्वमान्य स्वरूप प्रस्तुत किया जाये और चारों सम्प्रदाय अपने नाम रूपों को विलीन कर उस एक ही महासंघ के अंग बन जायें। .. जैन एकता का प्रश्न : २४ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्युषण पर्व एवं संवत्सरी की एकरूपता का प्रश्न जैन परम्परा में पर्यों को दो भागों में विभाजित किया गया हैं- एक लौकिक पर्व और दूसरे आध्यात्मिक पर्व। पयुर्षण की गणना आध्यात्मिक पर्व के रूप में की गई है। इसे पर्वाधिराज कहा जाता है। आगमिक साहित्य में उपलब्ध सूचनाओं के आधार पर पर्युषण पर्व अति प्राचीन प्रतीत होता है। प्राचीन आगम साहित्य में इसकी निश्चित तिथि एवं पर्व दिनों की संख्या का उल्लेख नहीं मिलता है। मात्र इतना ही संकेत मिलता है कि भाद्र शुक्ला पंचमी का अतिक्रमण नहीं करना चाहिये । वर्तमान में श्वेताम्बर परम्परा का मूर्तिपूजक सम्प्रदाय इसे भाद्रकृष्णा द्वादशी से भाद्र शुक्ला चतुर्थी तक तथा स्थानकवासी और तेरापंथी सम्प्रदाय इसे भाद्र कृष्णा त्रयोदशी से भाद्र शुक्ला पंचमी तक मानता है। दिगम्बर परम्परा में यह पर्व भाद्र शुक्ला चतुर्दशी तक मनाया जाता है। उसमें इसे दस लक्षण पर्व के नाम से भी जाना जाता है। श्वे. परम्परा के बृहद-कल्प भाष्य में और दिगम्बर परम्परा के मूलाचार में और यापनीय परम्परा के ग्रन्थ भगवती आराधना में दस कल्पों के प्रसंग में पण्णोसवण कप्प का भी उल्लेख है, किन्तु इन ग्रन्थों के साथ ही श्वे. छेदसूत्र- आयारदसा (दशाश्रुतस्कन्ध) तथा निशीथ में ‘पज्जोसवण का उल्लेख है। आयारदशा एवं निशीथ आदि आगम ग्रन्थों में पर्युषण (पज्जोसवण) का प्रयोग भी अनेक अर्थों में हुआ है। निम्न पंक्तियों में हम उसके इन विभिन्न अर्थों पर विचार करेंगे। ___(1) श्रमण के दस कल्पों में एक कल्प ‘पज्जोसवण कल्प' है। इसका अर्थ है- वर्षावास में पालन करने योग्य आचार के विशेष नियम। (2) निशीथ (10/45) में उल्लेख है कि जो भिक्षु ‘पज्जोसवणा में किंचितमात्र भी आहार करता है उसे चातुर्मासिक प्रायश्चित आता है। इस सन्दर्भ में 'पज्जोवसण शब्द समग्र वर्षावास का सूचक नहीं हो किसी दिन विशेष का सूचक हो सकता है, समग्र वर्षाकाल का नहीं। क्योंकि सम्पूर्ण वर्षावास में आहार का निषेध सम्भव नहीं है। पुनः यह भी कहा गया है कि जो भिक्षु अपर्युषण काल में पर्युषण करता है और पर्युषण काल में पयुर्षण नहीं करता है, वह दोषी है (निशीथ 10/43) इस प्रसंग खा जैन एकता का प्रश्न : २५ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसका अर्थ एक दिन विशेष करना ही अधिक उचित प्रतीत होता है (3) निशीथ में पज्जोसवण का एक अर्थ वर्षावास के लिए स्थित होना भी है । उसमें कहा है कि जो भिक्षु वर्षावास के लिए स्थित (वासावासं पज्जोसवियसि ) होकर फिर ग्रामानुग्राम विचरण करता है वह दोष का सेवन करता है। ऐसा लगता है कि पयुर्षण वर्षावास के लिए एक स्थान पर स्थित हो जाने का एक दिन विशेष था जिस दिन श्रमण संघ को उपवासपूर्वक केशलोच, वार्षिक प्रतिक्र मण ( सांवत्सरिक प्रतिक्रमण) और पज्जोसवणाकल्प (वर्षावास के नियमों) का पाठ करना होता था । पयुर्षण (सवंत्सरी) पर्व कब और क्यों ? प्राचीन ग्रंथों विशेष रूप से कल्पसूत्र एवं निशीथ के देखने से यह स्पष्ट होता है कि पर्युषण मूलत: वर्षावास की स्थापना का पर्व था । यह वर्षावास की स्थापना के दिन मनाया जाता था । उपवास, केशलोच, सांवत्सरिक प्रतिक्रमण एवं प्रायश्चित, क्षमायाचना (कषायोपशमन) और पज्जोसवणाकप्प (पर्युषण- -कल्प=कल्पसूत्र) का पारायण उस दिन के आवश्यक कर्तव्य थे । इस प्रकार पर्युषण एक दिवासीय पर्व था । यद्यपि निशीथचूर्णि के अनुसार पर्युषण के अवसर पर तेला (अष्टम भक्त) करना आवश्यक था। उसमें स्पष्ट उल्लेख है कि 'पज्जोसवणाए अट्ठम न करेइ तो चउगुरू' अर्थात् जो साधु पर्युषण के अवसर पर तेला नहीं करता है तो उसे गुरू चातुर्मासिक प्रायश्चित आता है।' इसका अर्थ है कि पर्युषण की आराधना का प्रारम्भ उस दिन के पूर्व भी हो जाता था । जीवाभिगम के अनुसार पर्युषण एक अठाई महोत्सव (अष्ट दिवसीय पर्व) के रूप में मनाया जाता था । उसमें उल्लेख है कि चातुर्मासिक पूर्णिमाओं एवं पर्युषण के अवसर पर देवतागण नन्दीश्वर द्वीप में जाकर अष्टाह्निक महोत्सव मनाया करते हैं ।' दिगम्बर परम्परा में आज भी आषाढ़, कार्तिक और फाल्गुन की पूर्णिमाओं (चातुर्मासिक पूर्णिमाओं) के पूर्व अष्टाह्निक पर्व मानने की प्रथा है । लगभग आठवीं शताब्दी से दिगम्बर साहित्य में इसके उल्लेख मिलते हैं। प्राचीनकाल में पर्युषण आषाढ़ पूर्णिमा को मनाया जाता था और उसके साथ ही आष्टाह्निक महोत्सव भी होता था । हो सकता है कि बाद में जब पर्युषण भाद्र शुक्ल चतुर्थी / पंचमी को मनाया जाने लगा तो उसके साथ भी अष्ट-दिवस जुड़े रहे और इस प्रकार वह अष्ट दिवसीय पर्व बन गया । वर्तमान में पर्युषण पर्व का सबसे महत्त्वपूर्ण दिन संवत्सरी पर्व माना जाता है । जैन एकता का प्रश्न : २६ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायांग के अनुसार आषढ़ पूर्णिमा से एक मास और बीस रात्रि पश्चात् अर्थात् भाद्रपद शुक्ल पंचमी को पर्युषण-सांवत्सरिक प्रतिक्रमण कर लेना चाहिये। निशीथ के अनुसार पचासर्वी रात्रि का उल्लंघन नहीं करना चाहिये । उपवासपूर्वक सांवत्सरिक प्रतिक्रमण करना यह श्रमण का आवश्यक कर्तव्य तो था ही, लेकिन निशीथचूर्णि में उदयन और चण्डप्रद्योत के आख्यान से ऐसा लगता है कि वह गृहस्थ के लिए भी अपरिहार्य था। लेकिन मूल प्रश्न यह है कि यह सांवत्सरिक पर्व कब किया जाय ? सांवत्सरिक पर्व के दिन समग्र वर्ष के अपराधों और भूलों का प्रतिक्रमण करना होता है, अत: इसका समय वर्षान्त ही होना चाहिये । प्राचीन परम्परा के अनुसार आषाढ़ पूर्णिमा को वर्ष का अन्तिम दिन माना जाता था। श्रावण वदी प्रतिपदा से नव वर्ष का आरम्भ होता था। भाद्र शुक्ल चतुर्थी या पंचमी को किसी भी परम्परा (शास्त्र) के अनुसार वर्ष का अन्त नहीं होता। अत: भाद्र शुक्ल पंचमी को सांवत्सरिक प्रतिक्रमण की वर्तमान परम्परा समुचित प्रतीत नहीं होती। प्राचीन आगमों में जो देवसिक, रात्रिक, पाक्षिक, चार्तुमासिक और सांवत्सरिक प्रतिक्रमण का उल्लेख है उनको देखने से ऐसा लगता है कि उस अवधि के पूर्ण होने पर ही तत् सम्बन्धी प्रतिक्रमण (आलोचना) किया जाता था। जिस प्रकार आज भी दिन की समाप्ति पर देवसिक, पक्ष की समाप्ति पर पाक्षिक, चतुर्मास की समाप्ति पर चातुर्मासिक प्रतिक्रमण किया जाता है,उसी प्रकार वर्ष की समाप्ति पर सांवत्सरिक प्रतिक्रमण किया जाना चाहिये । प्रश्न होता है कि सांवत्सरिक प्रतिक्रमण की यह तिथि भिन्न कैसे हो गई ? निशीथ भाष्य की चूर्णि में जिनदासगणि ने स्पष्ट लिखा है कि पर्युषण पर्व पर वार्षिक आलोचना करनी चाहिये (पज्जोसवासु परिसिया आलोयणा दायिवा) । चूँकि वर्ष की समाप्ति आषाढ़ पूर्णिमा को हो होती है इसलिए आषाढ़ पूर्णिमा को पर्युषण अर्थात् सांवत्सरिक प्रतिक्रमण करना चाहिए। निशीथ भाष्य में स्पष्ट उल्लेख है- आषाढ़ पूर्णिमा को ही पर्युषण करना सिद्धान्त है। सम्भवत: इस पक्ष के विरोध में समवायांग और आयारदशा (दशाश्रुत स्कंध) के उस पाठ को प्रस्तुत किया जा सकता है जिसके अनुसार आषाढ़ पूर्णिमा के एक मास और बीस रात्रि के व्यतीत हो जाने पर पर्युषण करना चाहिए। चूँकि कल्पसूत्र के मूल पाठ में यह भी लिखा हुआ है कि श्रमण भगवान् महावीर ने आषाढ़ पूर्णिमा से एक मास और बीस रात्रि के व्यतीत हो जाने पर वर्षावास (पर्युषण) किया था उसी प्रकार गणधरों ने किया, स्थविरों ने किया और उसी प्रकार वर्तमान श्रमण निर्ग्रन्थ भी करते हैं । निश्चित रूप से यह कथन भाद्र शुक्ल पंचमी की पर्युषण करने के पक्ष में सबसे बड़ा प्रमाण है। जैन एकता का प्रश्न : २७ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेकिन हमें यह विचार करना होगा कि क्या यह अपवाद मार्ग था या उतसर्ग मार्ग था। यदि हम कल्पसूत्र के उसी पाठ को देखें तो उसमें यह स्पष्ट लिखा हुआ है कि इसके पूर्व तो पर्युषण एवम् सांवत्सरिक प्रतिक्रमण करना कल्पता है, किन्तु वर्षा ऋतु के एक मास और बीस रात्रि का अतिक्रमण करना नहीं कल्पता है-'अंतरा वि य कप्पइ (पज्जोसवित्तए) नो से कप्पइ तं रयणि उवाइणा वित्तए। निशीथ भाष्य 3153 की चूर्णि में और कल्पसूत्र की टीकाओं में जो भाद्रशुक्ल चतुर्थी को पर्युषण या संवत्सरी करने का कालक आचार्य की कथा के साथ जो उल्लेख है वह भी इसी बात की पुष्टि करता है कि भाद्र शुक्ल पंचमी के पूर्व तो पर्युषण किया जा सकता है किन्तु उस तिथि का अतिक्रमण नहीं किया जा सकता है। निशीथ चूर्णि में स्पष्ट लिखा है कि"आसाढ़ पूणिमाए पज्जोसेवन्ति एस उसग्गो सेसकालं पज्जोसेवन्ताणं अववातो । अववाते वि सवीससतिरातमासातो परेण अतिकम्मेउण वट्टति सवीसतिराते मासे पुण्णे जति वासखेत्तं ण लब्भति तो रूक्ख हेट्ठावि पज्जोसवेयव्व । तं पुण्णिमाए पंचमीए, दसमीए, एवमादि पव्वेसु पज्जुसवेयव्वं नो अपवेसु“अर्थात् आषाढ़ पूर्णिमा को पर्युषण करना यह उत्सर्ग मार्ग है और अन्य समय में पर्युषण करना यह अपवाद मार्ग है । अपवाद मार्ग में भी एक मास और 20 दिन अर्थात् भाद्र शुक्ल पंचमी का अतिक्रमण नहीं करना चाहिये। यदि भाद्र शुक्ल पंचमी तक भी निवास के योग्य स्थान उपलब्ध न हो तो वृक्ष के नीचे पर्युषण कर लेना चाहिये। अपवाद मार्ग में भी पंचमी, दशमी, अमावस्या एवं पूर्णिमा करना चाहिए, अन्य तिथियों में नहीं। इस बात को लेकर निशीथ भाष्य एवं चूर्णि में यह प्रश्न भी उठाया गया है कि भाद्र शुक्ल चतुर्थी को अपर्व तिथि में पर्युषण क्यों नहीं किया जाता है। इस सन्दर्भ में कालक आचार्य की कथा दी गयी है। कथा इस प्रकार है - कालक आचार्य विचरण करते हुए वर्षावास हेतु उज्जयिनी पहुँचे, किन्तु किन्हीं कारणों से राजा रूष्ट हो गया, अत: कालक आचार्य ने वहाँ से विहार करके प्रतिष्ठानपुर की ओर प्रस्थान किया और वहाँ के श्रमण संघ को आदेश भिजवाया कि जब तक हम नहीं पहुँचते तब तक आप लोग पर्युषण न करें । वहाँ का सातवाहन राजा श्रावक था, उसने कालक आचार्य को सम्मान के साथ नगर में प्रवेश कराया। प्रतिष्ठानपुर पहुंचकर आचार्य ने घोषणा की कि भाद्र शुक्ल पंचमी को पर्युषण करेंगे। यह सुनकर राजा ने निवेदन किया कि उस दिन नगर में इन्द्रमहोत्सव होगा। अत: आप भाद्र शुक्ल पष्ठि को पर्युषण कर लें, किन्तु आचार्य ने कहा कि शास्त्र के अनुसार पञ्चमी का अतिक्रमण करना कल्प्य नहीं हैं। इस पर राजा ने कहा कि फिर आप भाद्र जैन एकता का प्रश्न : २८ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुक्ल चतुर्थी को ही पर्युषण करें आचार्य ने इस बात को स्वीकृति दे दी और श्रमण संघ भाद्र शुक्ल चतुर्थी का पर्युषण किया । यहाँ ऐसा लगता है कि आचार्य लगभग भाद्र कृष्ण पक्ष के अन्तिम दिनों में प्रतिष्ठानपुर पहुँचे थे और भाद्र कृष्ण अमावस्या को पर्युषण करना सम्भव नहीं था । यद्यपि वे अमावस्या के पूर्व अवश्य ही प्रतिष्ठानपुर पहुँच चुके थे क्योंकि निशीथ चूर्णि यह भी लिखा है कि राजा ने श्रावकों को आदेश दिया कि तुम भाद्र कृष्ण अमावस्या को पाक्षिक उपवास करना और भाद्रशुक्ल प्रतिपदा को विविध पकवानों के साथ पारणे · लिए मुनिसंघ को आहार प्रदान करना। चूँकि शास्त्र - आज्ञा के अनुसार सांवत्सरिक प्रतिक्रमण के पूर्व तेला करना होता था, अतः भाद्रशुक्ल द्वितीय से चतुर्थी तक श्रमण संघ ने तेल किया। भाद्र शुक्ला पंचमी को पारणा किया। जनता ने आहार दान कर श्रमण संघ की उपासना की । इसी कारण महाराष्ट्र देश में भाद्र शुक्ल पञ्चमी श्रमण पूजा नाम से भी प्रचलित है। यह भी सम्भव है कि इसी आधार पर हिन्दू परम्परा में ऋषि पञ्चमी का विकास हुआ है । पर्युषण / दशलक्षण और दिगम्बर परम्परा जैसा कि हमने पूर्वं तें निर्देश किया कि दिगम्बर ग्रन्थ मूलाचार के समयसाराधिकार की 118 वीं गाथा में और यापनीय संघ के ग्रन्थ भगवती आराधना की 423वीं गाथा में दस कल्पों के प्रसंग में पर्युषण - कल्प का उल्लेख हुआ है । अपराजितसूरि ने भगवती आराधना की टीका में पज्जोसवण कप्प का अर्थ वर्षावास के लिए एक स्थान पर स्थित रहना ही किया जो श्वे. परम्परा से मूल अर्थ के अधिक निकट है। उन्होंने चातुर्मास का उत्सर्गकाल 120 दिन और अपवाद काल 100 दिन बताया है । यहाँ श्वे. परम्परा से उनका भेद स्पष्ट होता है क्योंकि श्वे. परम्परा में यह अपवाद काल भाद्र शुक्ला 5 से कार्तिक पूर्णिमा तक 70 दिन का ही है। इस प्रकार वे यह मानते हैं कि उत्सर्ग रूप में तो आषाढ़ शुक्ला पूर्णिमा को और अपवाद रूप में उसके 50 दिन पश्चात् तक कभी पर्युषण अर्थात् वर्षावास की स्थापना कर लेनी चाहिये । इस प्रकार दिगम्बर परम्परा में वर्षायोग की स्थापना के साथ अष्टाह्निक पर्व जैन एकता का प्रश्न २९ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानने की जो प्रथा है वही पर्युषण के मूलहाई के साथ उपयुक्त लगती है, मूलतः यह आषाढ़ पूर्णिमा के आठ दिन पूर्व से मनाया जाता है। जहाँ तक दशलक्षण पर्व के इतिहास का प्रश्न है वह अधिक पुराना नहीं है। मुझे अब तक किसी प्राचीन ग्रन्थ में इसका उल्लेख देखने को नहीं मिला है। यद्यपि 17वीं शताब्दी की एक कृति व्रततिथिनिर्णय में यह उल्लेख अवश्य है कि दशलाक्षणिक व्रत में भाद्रपद की शुक्ला पंचमी को प्रोषध करना चाहिए। इससे पर्व का भी मुख्य दिन यही प्रतीत होता है । क्षमाधर्म आराधना का दिन होने से भी यह श्वे. परम्परा की संवत्सरी-पर्व की मूलभावना के अधिक निकट बैठता है। आशा है दिगम्बर परम्परा के विद्वान इस पर अधिक प्रकाश डालेंगे। इस प्रकार दिगम्बर परम्परा में भी पर्युषण के प्रारम्भ का उत्सर्गकाल आषाढ़ पूर्णिमा और अपवादकाल भाद्र शुक्ला पंचमी माना जा सकता है। समन्वय कैसे करें? उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि आषाढ़ पूर्णिमा पर्युषण (संवत्सरो) पर्व की पूर्व सीमा है और भाद्र शुक्ला 5 अन्तिम सीमा है। इस प्रकार पर्युषण इन दोनों तिथियों के मध्य कभी भी पर्व तिथि में किया जा सकता है। श्वेताम्बर एवं दिगम्बर दोनों परम्पराओं के अनुसार आषाढ़ पूर्णिमा को केशलोच, उपवास एवं सांवत्सरिक प्रतिक्रमण कर वर्षावास की स्थापना कर लेना चहिये यह उत्सर्ग मार्ग हैं। यह भी स्पष्ट हैं कि बिना किसी विशेष कारण के अपवाद मार्ग का सेवन करना भी उचित नहीं हैं। प्राचीन युग में जब उपाश्रय नहीं थे तथा साधु अपने निमित्त से बने उपाश्रयों में नहीं ठहरते थे, तब योग्य स्थान की प्राप्ति के अभाव में पर्युषण (वर्षावास की स्थापना) कर लेना सम्भव नहीं था । पुन: साधु-साध्वियों की संख्या अधिक होने से आवास-प्राप्ति-सम्बन्धी कठिनाई बराबर बनी रहती थी। अत: अपवाद के सेवन की सम्भावना अधिक बनी रहती थी। स्वयं भगवान् महावीर को भी स्थान-सम्बन्धी समस्या के कारण वर्षाकाल में विहार करना पड़ा था। निशीथचूर्णि की रचना तक अर्थात् सातवीं-आठवीं शताब्दी तक साधु-साधुवी स्थान की उपलब्धि होने पर अपनी एवं स्थानीय संघ की सुविधा के अनुरूप आषाढ़ शुक्ला पूर्णिमा से भाद्र शुक्ला पंचमी तक कभी भी पर्युषण कर लेते थे। यद्यपि उस युग तक चैत्यवासी साधुओं ने महोत्सव के रूप में पर्व मानना तथा गृहस्थों के समक्ष कल्पसूत्र का वाचन करना एवं सांवत्सरिक प्रतिक्रमण करना आदि जैन एकता का प्रश्न : ३० Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रारम्भ कर दियाथा, किन्तु तबभी कुछ कठोर आचारवान् साधुथे जो इसे आगमानुकूल नहीं मानते थे। उन्हीं को लक्ष्य में रख कर चूर्णिकार ने कहा था, यद्यपि साधु को गृहस्थों के सम्मुख पर्युषण कल्प का वाचन नहीं करना चाहिए किन्तु यदि पासत्था (चैत्यवासीशिथिला-चारी साधु) पढ़ता है तो सुनने में कोई दोष नहीं है। लगता है कि आठवीं शताब्दी के पश्चात् कभी संघ की एकरूपता को लक्ष्य में रखकर किसी प्रभावशाली आचार्य ने अपवाद काल की अन्तिम तिथि भाद्र शुक्ला चतुर्थी/पंचमी को पर्युषण (संवत्सरी) मानने का आदेश दिया हो। यदि सम्पूर्ण जैन समाज की एकता की दृष्टि से विचार करें तो आज साधुसाध्वी वर्ग को स्थान उपलब्ध होने में सामान्यतया कोई कठिनाई नहीं होती है। आज सभी परम्परा के साधु-साध्वी आषाढ़ पूर्णिमा को वर्षावास की स्थापना कर लेते हैं और जब अपवाद का कोई कारण नहीं है तो फिर अपवाद का सेवन क्यों किया जाये ? दूसरे भाद्रपद शुक्लपक्ष में पर्युषण/संवत्सरी करने से, जो अपकाय और त्रस की विराधना से बचने के लिए संवत्सरी के पूर्व केश लोच का विधान था, उसका कोई मूल उद्देश्य हल नहीं होता है । वर्षा में बालों के भीगने से अपकाय की विराधना और त्रस जीवों की उत्पत्ति की सम्भावना रहती है। अत: उत्सर्ग मार्ग के रूप में आषाढ़ पूर्णिमा को संवत्सरी/पर्युषण करना ही उपयुक्त है इसमें आगम से कोई विरोध भी नहीं है और समग्र जैन समाज की एकता भी बन सकती है। साथ ही दो श्रावण या दो भाद्रपद का विवाद भी स्वाभाविक रूप से हल हो जाता है। .. यदि अपवाद मार्ग को ही स्वीकार करना है तो फिर अपवाद मार्ग के अन्तिम दिन भाद्र शुक्ला पंचमी को स्वीकार किया जा सकता है। इस दिन स्थानकवासी, तेरापंथी एवं मूर्तिपूजक सम्प्रदाय के कुछ गच्छ तो मनाते ही हैं, शेष मूर्तिपूजक समाज को भी इसमें आगमिक दृष्टि में कोई बाधा नहीं आती है। क्योंकि कालकाचार्य की भाद्रपद शुक्ला चतुर्थी की व्यवस्था आपवादिक व्यवस्था थी और एक नगर-विशेष की परिस्थिति विशेष पर आधारित थी। सम्भवत: यदि कालकाचार्य भी दूसरे वर्ष जीवित रहते तो स्वयं भी चतुर्थी को पर्युषण नहीं करते। उनके शिष्य वर्ग ने इसे गुरू का अन्तिम आदेश मानकर चतुर्थी की परंपरा की हो परंतु इसमें परिवर्तन करना आगम विरूद्ध नहीं है। यह तर्क कि ऐसा करने में एक दिन की आलोचना नहीं होगी उचित नहीं है क्योंकि हम आलोचना 360 दिन की करते हैं जबकि वर्ष में 354 दिन ही होते हैं। पुन: अधिक जैन एकता का प्रश्न : ३१ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मास वाले वर्ष में 384 दिन होते हैं क्या इसमें 24 दिन की आलोचना शेष रह जाती है ? यह सब विचार युक्तिसंगत नहीं है। इसी प्रकार आगम ग्रन्थों को छोड़कर 15वीं16वीं शताब्दी के आचार्यों के ग्रन्थों को आधार मानकर विवाद करना भी उचित नहीं है, पुन: स्वयं निशीथचूर्णि से अनुसार चतुर्थी अपर्व तिथि है; अतः भाद्र शुक्ला पंचमी - क्षमा पर्व का मूल दिन चुन लिया जावे। शेष दिन उसके आगे हों या पीछे, यह अधिक महत्व नहीं रखता है- सुविधा की दृष्टि से उन पर एक आम सहमति बनाई जा सकती है । भाद्रशुक्ला पंचमी को दिगम्बर परम्परा के अनुसार भी क्षमा दिवस है ही अत: इस दिन पर सम्पूर्ण जैन समाज एक हो सकता है । जहाँ तक क्षय या वृद्धि तिथि का प्रश्न है ' क्षये पूर्वा वृद्धे उत्तरा' के उमास्वाति के सिद्धान्त को मान्य कर लिया जावे | अधिक मास के प्रसंग पर या तो लौकिक पंचांग के अनुसार अधिक मास गौण माना जाये अथवा फिर आगमिक आधार पर आषाढ़ या पौष मास की हो वृद्धि मानी जाये । कुछ सूत्र हैं जिनके आधार पर एकता को साधा जा सकता है । 1. 2. 3. 4. 5. निशीथचूर्णि, 3217 जीवाभिगम - नन्दीश्वर द्वीप वर्णन. भगवती आराधना, गाथा 423. वही गाथा 423 की टीका; पृ. 334. दक्षलाक्षणिक व्रते भाद्रपद मासे शुक्ले श्री पंचमीदिने प्रोषधः कार्यः -व्रततिथिनिर्णय, पृ.24. जैन एकता का प्रश्न : ३२ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डॉ. सागरमल जैन शिक्षा जन्म तिथि : दि. 22.02.1932 जन्म स्थान : शाजापुर (म.प्र.) : साहित्यरत्न : 1954 एम.ए. (दर्शन शास्त्र) : 1963 पी-एच. डी. : 1969 अकादमिक उपलब्धियाँ : प्रवक्ता म.प्र. शास. शिक्षा सेवा (1964-67), सहायक प्राध्यापक (1968-85), प्राध्यापक (प्रोफेसर) (1985-89), निदेशक, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी (1979-97) लेखन : 30 पुस्तकें, 25 लघु पुस्तिकाएँ सम्पादन : 150 पुस्तकें सम्पादक : जैन विद्या विश्वकोष (पार्श्वनाथ विद्यापीठ की महत्वाकांक्षी परियोजना) श्रमण' त्रैमासिक शोध पत्रिका पुरस्कार प्रदीपकुमार रामपुरिया पुरस्कार (1986,1998), स्वामी प्रणवानन्द पुरस्कार (1987), डिप्टीमल पुरस्कार (1992), आचार्य हस्तीमल स्मृति सम्मान (1994), विद्यावारिधि सम्मान (2003), कलां मर्मज्ञ सम्मान (2006), जैन प्रेसीडेन्शियल अवार्ड (यू.एस.ए. 2007), गौतमगणधर पुरस्कार (2008), आचार्य तुलसी प्राकृत पुरस्कार (2009). सदस्यः अकादमिक समितिः विद्वत् परिषद, भोपाल विश्वविद्यालय, भोपाल जैन विश्वभारती संस्थान लाडनूं मानद निदेशक, आगम, अहिंसा, समता एवं प्राकृत संस्थान, उदयपुर। सम्प्रति संस्थापक एवं निदेशक प्राच्य विद्यापीठ, शाजापुर (म.प्र.) विदेश भ्रमण शिकागो, राले, ह्यूस्टन, न्यूजर्सी, उत्तरी करोलीना, वाशिंगटन, सेनफांसिस्को, लॉस एंजिल्स, फिनीक्स, सेंट लूईस, पिट्सबर्ग, टोरण्टो, न्यूयार्क, कनाडा और लंदन यू. के.। प्राच्य विद्यापीठ: एक परिचय डॉ. सागरमल जैन पारमार्थिक शिक्षण न्यास द्वारा सन् 1997 से संचालित प्राच्य विद्यापीठ, शाजापुर आगरा-मुम्बई राष्ट्रीय राजमार्ग पर स्थित इस संस्थान का मुख्य उदेश्य भारतीय प्राच्य विद्याओं के उच्च स्तरीय अध्ययन, प्रशिक्षण एवं शोधकार्य के साथ-साथ भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों को पुनःप्रतिष्ठित करना है। इस विद्यापीठ में जैन, बौद्ध और हिन्दु धर्म आदि के लगभग 12,000 दुर्लभ ग्रन्थ उपलब्ध है। इसके अतिरिक्त 700 हस्तलिखित पाण्डुलिपियाँ भी है। यहाँ 1.0 कला मन्त्रिकाएँ भी नियमित आती है।