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हम जिस आचार्य को अपनी आस्था या श्रद्धा का केन्द्र मान रहे हैं, उसका पक्ष ही एकमात्र सत्य है और उसके अतिरिक्त अन्य सभी मिथ्यात्वी और शिथिलाचारी हैं। 'हम सच्चे और दूसरे झूठे' की भ्रान्त धारणा धार्मिक असहिष्णुता को जन्म देती है । यह माना कि सत्य का सूर्य केवल हमारे घर को ही आलोकित करता है, एक मिथ्या धारणा ही है। जैनधर्म का अनेकान्तवाद यह मानता है कि सत्य का बोध और प्रकाशन दूसरो के द्वारा भी सम्भव है, सत्य हमारे विपक्ष में हो सकता है। हम ही सदाचारी और शुद्धाचारी हैं- दूसरे सब शिथिलाचारी और असंयती हैं - यह कहना क्या उन लोगों को शोभा देता है - जिनके शास्त्र 'अन्यलिंगसिद्धा' का उद्घोष करते हैं। आज दुर्भाग्य तो यह है कि जो दर्शन अनेकांत के सिद्धान्त के द्वारा विश्व के विभिन्न धर्म और दर्शनों में समन्वय की बात कहता है और जो 'षट्दरसण जिन अंग भणीजे' की व्यापक दृष्टि प्रस्तुत करता है, वह स्वयं अपने ही सम्प्रदायों के बीच समन्वय - सूत्र नहीं खोज पा रहा है ।
एक ओर अनेकांतवाद का उद्घोष और दूसरी ओर सम्प्रदायों का व्यामेहदोनों एक साथ सत्य नहीं हो सकते। वस्तुतः कोई व्यक्ति जैन हो और उसमें साम्प्रदायिक दुराग्रह भी हो, यह नहीं हो सकता। यदि हम सम्प्रदायों, दुराग्रहों मे आस्था रखते हैं, तो इतना सुनिश्चित है कि हम जैन नहीं हैं । जैनधर्म की परिभाषा है -
स्याद्वादो वर्ततेऽस्मिन् पक्षपातो न विद्यते । नास्त्यन्य पीडनं किच्चित्, जैनधर्मः स उच्चते ॥
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जो स्याद्वाद में आस्था रखता है तथा पक्षपात से दूर और जो किसी को पीड़ा नहीं देता, वही जैनधर्म का सच्चा अनुयायी है । अहिंसा और अनेकान्त के सच्चे अनुयायियों में साम्प्रदायिक वैमनस्य पनपे, यह सम्भव नहीं है । यहाँ हमारे जीवन के विरोधाभास स्पष्ट हैं । हम अहिंसा की दुहाई देते हैं और अपने ही सहधर्मी भाईयों को पीटने या पिटवाने का उपक्रम करते हैं- हमारी साम्प्रदायिक वैमनस्यता ने अहिंसा की पवित्र चादर पर खून के छीटें डाले हैं - अन्तरिक्ष पार्श्वनाथ और केसरियाजी की घटनाएँ आज भी इसकी साक्षी हैं। हम अनेकांत का नाम लेते हैं और साम्प्रदायिक क्षुद्रताओं से बुरी तरह जकड़े हुए अपने सम्प्रदाय के अलावा हमें सभी मिथ्यात्वी नजर आते हैं। 'अपरिग्रह की दुहाई देते हैं, किन्तु देवद्रव्य के नाम पर धन का संग्रह करते हैं, मन्दिरों की सम्पत्तियों के लिए न्यायालयों में वाद प्रस्तुत करते हैं। आश्चर्य तो यह है कि वादी के नाम में परम अपरिग्रही भगवान् का नाम भी जुड़ता है । जिस प्रभु ने अपनी समस्त धन
जैन एकता का प्रश्न : ९
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