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मानने की जो प्रथा है वही पर्युषण के मूलहाई के साथ उपयुक्त लगती है, मूलतः यह आषाढ़ पूर्णिमा के आठ दिन पूर्व से मनाया जाता है।
जहाँ तक दशलक्षण पर्व के इतिहास का प्रश्न है वह अधिक पुराना नहीं है। मुझे अब तक किसी प्राचीन ग्रन्थ में इसका उल्लेख देखने को नहीं मिला है। यद्यपि 17वीं शताब्दी की एक कृति व्रततिथिनिर्णय में यह उल्लेख अवश्य है कि दशलाक्षणिक व्रत में भाद्रपद की शुक्ला पंचमी को प्रोषध करना चाहिए। इससे पर्व का भी मुख्य दिन यही प्रतीत होता है । क्षमाधर्म आराधना का दिन होने से भी यह श्वे. परम्परा की संवत्सरी-पर्व की मूलभावना के अधिक निकट बैठता है। आशा है दिगम्बर परम्परा के विद्वान इस पर अधिक प्रकाश डालेंगे।
इस प्रकार दिगम्बर परम्परा में भी पर्युषण के प्रारम्भ का उत्सर्गकाल आषाढ़ पूर्णिमा और अपवादकाल भाद्र शुक्ला पंचमी माना जा सकता है। समन्वय कैसे करें?
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि आषाढ़ पूर्णिमा पर्युषण (संवत्सरो) पर्व की पूर्व सीमा है और भाद्र शुक्ला 5 अन्तिम सीमा है। इस प्रकार पर्युषण इन दोनों तिथियों के मध्य कभी भी पर्व तिथि में किया जा सकता है। श्वेताम्बर एवं दिगम्बर दोनों परम्पराओं के अनुसार आषाढ़ पूर्णिमा को केशलोच, उपवास एवं सांवत्सरिक प्रतिक्रमण कर वर्षावास की स्थापना कर लेना चहिये यह उत्सर्ग मार्ग हैं। यह भी स्पष्ट हैं कि बिना किसी विशेष कारण के अपवाद मार्ग का सेवन करना भी उचित नहीं हैं। प्राचीन युग में जब उपाश्रय नहीं थे तथा साधु अपने निमित्त से बने उपाश्रयों में नहीं ठहरते थे, तब योग्य स्थान की प्राप्ति के अभाव में पर्युषण (वर्षावास की स्थापना) कर लेना सम्भव नहीं था । पुन: साधु-साध्वियों की संख्या अधिक होने से आवास-प्राप्ति-सम्बन्धी कठिनाई बराबर बनी रहती थी। अत: अपवाद के सेवन की सम्भावना अधिक बनी रहती थी। स्वयं भगवान् महावीर को भी स्थान-सम्बन्धी समस्या के कारण वर्षाकाल में विहार करना पड़ा था। निशीथचूर्णि की रचना तक अर्थात् सातवीं-आठवीं शताब्दी तक साधु-साधुवी स्थान की उपलब्धि होने पर अपनी एवं स्थानीय संघ की सुविधा के अनुरूप आषाढ़ शुक्ला पूर्णिमा से भाद्र शुक्ला पंचमी तक कभी भी पर्युषण कर लेते थे। यद्यपि उस युग तक चैत्यवासी साधुओं ने महोत्सव के रूप में पर्व मानना तथा गृहस्थों के समक्ष कल्पसूत्र का वाचन करना एवं सांवत्सरिक प्रतिक्रमण करना आदि
जैन एकता का प्रश्न : ३०
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