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शुक्ल चतुर्थी को ही पर्युषण करें आचार्य ने इस बात को स्वीकृति दे दी और श्रमण संघ भाद्र शुक्ल चतुर्थी का पर्युषण किया ।
यहाँ ऐसा लगता है कि आचार्य लगभग भाद्र कृष्ण पक्ष के अन्तिम दिनों में प्रतिष्ठानपुर पहुँचे थे और भाद्र कृष्ण अमावस्या को पर्युषण करना सम्भव नहीं था । यद्यपि वे अमावस्या के पूर्व अवश्य ही प्रतिष्ठानपुर पहुँच चुके थे क्योंकि निशीथ चूर्णि
यह भी लिखा है कि राजा ने श्रावकों को आदेश दिया कि तुम भाद्र कृष्ण अमावस्या को पाक्षिक उपवास करना और भाद्रशुक्ल प्रतिपदा को विविध पकवानों के साथ पारणे
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लिए मुनिसंघ को आहार प्रदान करना। चूँकि शास्त्र - आज्ञा के अनुसार सांवत्सरिक प्रतिक्रमण के पूर्व तेला करना होता था, अतः भाद्रशुक्ल द्वितीय से चतुर्थी तक श्रमण संघ ने तेल किया। भाद्र शुक्ला पंचमी को पारणा किया। जनता ने आहार दान कर श्रमण संघ की उपासना की । इसी कारण महाराष्ट्र देश में भाद्र शुक्ल पञ्चमी श्रमण पूजा नाम से भी प्रचलित है। यह भी सम्भव है कि इसी आधार पर हिन्दू परम्परा में ऋषि पञ्चमी का विकास हुआ है ।
पर्युषण / दशलक्षण और दिगम्बर परम्परा
जैसा कि हमने पूर्वं तें निर्देश किया कि दिगम्बर ग्रन्थ मूलाचार के समयसाराधिकार की 118 वीं गाथा में और यापनीय संघ के ग्रन्थ भगवती आराधना की 423वीं गाथा में दस कल्पों के प्रसंग में पर्युषण - कल्प का उल्लेख हुआ है । अपराजितसूरि ने भगवती आराधना की टीका में पज्जोसवण कप्प का अर्थ वर्षावास के लिए एक स्थान पर स्थित रहना ही किया जो श्वे. परम्परा से मूल अर्थ के अधिक निकट है। उन्होंने चातुर्मास का उत्सर्गकाल 120 दिन और अपवाद काल 100 दिन बताया है । यहाँ श्वे. परम्परा से उनका भेद स्पष्ट होता है क्योंकि श्वे. परम्परा में यह अपवाद काल भाद्र शुक्ला 5 से कार्तिक पूर्णिमा तक 70 दिन का ही है। इस प्रकार वे यह मानते हैं कि उत्सर्ग रूप में तो आषाढ़ शुक्ला पूर्णिमा को और अपवाद रूप में उसके 50 दिन पश्चात् तक कभी पर्युषण अर्थात् वर्षावास की स्थापना कर लेनी चाहिये । इस प्रकार दिगम्बर परम्परा में वर्षायोग की स्थापना के साथ अष्टाह्निक पर्व
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जैन एकता का प्रश्न
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