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समवायांग के अनुसार आषढ़ पूर्णिमा से एक मास और बीस रात्रि पश्चात् अर्थात् भाद्रपद शुक्ल पंचमी को पर्युषण-सांवत्सरिक प्रतिक्रमण कर लेना चाहिये। निशीथ के अनुसार पचासर्वी रात्रि का उल्लंघन नहीं करना चाहिये । उपवासपूर्वक सांवत्सरिक प्रतिक्रमण करना यह श्रमण का आवश्यक कर्तव्य तो था ही, लेकिन निशीथचूर्णि में उदयन और चण्डप्रद्योत के आख्यान से ऐसा लगता है कि वह गृहस्थ के लिए भी अपरिहार्य था। लेकिन मूल प्रश्न यह है कि यह सांवत्सरिक पर्व कब किया जाय ? सांवत्सरिक पर्व के दिन समग्र वर्ष के अपराधों और भूलों का प्रतिक्रमण करना होता है, अत: इसका समय वर्षान्त ही होना चाहिये । प्राचीन परम्परा के अनुसार आषाढ़ पूर्णिमा को वर्ष का अन्तिम दिन माना जाता था। श्रावण वदी प्रतिपदा से नव वर्ष का आरम्भ होता था। भाद्र शुक्ल चतुर्थी या पंचमी को किसी भी परम्परा (शास्त्र) के अनुसार वर्ष का अन्त नहीं होता। अत: भाद्र शुक्ल पंचमी को सांवत्सरिक प्रतिक्रमण की वर्तमान परम्परा समुचित प्रतीत नहीं होती। प्राचीन आगमों में जो देवसिक, रात्रिक, पाक्षिक, चार्तुमासिक और सांवत्सरिक प्रतिक्रमण का उल्लेख है उनको देखने से ऐसा लगता है कि उस अवधि के पूर्ण होने पर ही तत् सम्बन्धी प्रतिक्रमण (आलोचना) किया जाता था। जिस प्रकार आज भी दिन की समाप्ति पर देवसिक, पक्ष की समाप्ति पर पाक्षिक, चतुर्मास की समाप्ति पर चातुर्मासिक प्रतिक्रमण किया जाता है,उसी प्रकार वर्ष की समाप्ति पर सांवत्सरिक प्रतिक्रमण किया जाना चाहिये । प्रश्न होता है कि सांवत्सरिक प्रतिक्रमण की यह तिथि भिन्न कैसे हो गई ? निशीथ भाष्य की चूर्णि में जिनदासगणि ने स्पष्ट लिखा है कि पर्युषण पर्व पर वार्षिक आलोचना करनी चाहिये (पज्जोसवासु परिसिया आलोयणा दायिवा) । चूँकि वर्ष की समाप्ति आषाढ़ पूर्णिमा को हो होती है इसलिए आषाढ़ पूर्णिमा को पर्युषण अर्थात् सांवत्सरिक प्रतिक्रमण करना चाहिए। निशीथ भाष्य में स्पष्ट उल्लेख है- आषाढ़ पूर्णिमा को ही पर्युषण करना सिद्धान्त है।
सम्भवत: इस पक्ष के विरोध में समवायांग और आयारदशा (दशाश्रुत स्कंध) के उस पाठ को प्रस्तुत किया जा सकता है जिसके अनुसार आषाढ़ पूर्णिमा के एक मास
और बीस रात्रि के व्यतीत हो जाने पर पर्युषण करना चाहिए। चूँकि कल्पसूत्र के मूल पाठ में यह भी लिखा हुआ है कि श्रमण भगवान् महावीर ने आषाढ़ पूर्णिमा से एक मास
और बीस रात्रि के व्यतीत हो जाने पर वर्षावास (पर्युषण) किया था उसी प्रकार गणधरों ने किया, स्थविरों ने किया और उसी प्रकार वर्तमान श्रमण निर्ग्रन्थ भी करते हैं । निश्चित रूप से यह कथन भाद्र शुक्ल पंचमी की पर्युषण करने के पक्ष में सबसे बड़ा प्रमाण है।
जैन एकता का प्रश्न : २७
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