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________________ उसका अर्थ एक दिन विशेष करना ही अधिक उचित प्रतीत होता है (3) निशीथ में पज्जोसवण का एक अर्थ वर्षावास के लिए स्थित होना भी है । उसमें कहा है कि जो भिक्षु वर्षावास के लिए स्थित (वासावासं पज्जोसवियसि ) होकर फिर ग्रामानुग्राम विचरण करता है वह दोष का सेवन करता है। ऐसा लगता है कि पयुर्षण वर्षावास के लिए एक स्थान पर स्थित हो जाने का एक दिन विशेष था जिस दिन श्रमण संघ को उपवासपूर्वक केशलोच, वार्षिक प्रतिक्र मण ( सांवत्सरिक प्रतिक्रमण) और पज्जोसवणाकल्प (वर्षावास के नियमों) का पाठ करना होता था । पयुर्षण (सवंत्सरी) पर्व कब और क्यों ? प्राचीन ग्रंथों विशेष रूप से कल्पसूत्र एवं निशीथ के देखने से यह स्पष्ट होता है कि पर्युषण मूलत: वर्षावास की स्थापना का पर्व था । यह वर्षावास की स्थापना के दिन मनाया जाता था । उपवास, केशलोच, सांवत्सरिक प्रतिक्रमण एवं प्रायश्चित, क्षमायाचना (कषायोपशमन) और पज्जोसवणाकप्प (पर्युषण- -कल्प=कल्पसूत्र) का पारायण उस दिन के आवश्यक कर्तव्य थे । इस प्रकार पर्युषण एक दिवासीय पर्व था । यद्यपि निशीथचूर्णि के अनुसार पर्युषण के अवसर पर तेला (अष्टम भक्त) करना आवश्यक था। उसमें स्पष्ट उल्लेख है कि 'पज्जोसवणाए अट्ठम न करेइ तो चउगुरू' अर्थात् जो साधु पर्युषण के अवसर पर तेला नहीं करता है तो उसे गुरू चातुर्मासिक प्रायश्चित आता है।' इसका अर्थ है कि पर्युषण की आराधना का प्रारम्भ उस दिन के पूर्व भी हो जाता था । जीवाभिगम के अनुसार पर्युषण एक अठाई महोत्सव (अष्ट दिवसीय पर्व) के रूप में मनाया जाता था । उसमें उल्लेख है कि चातुर्मासिक पूर्णिमाओं एवं पर्युषण के अवसर पर देवतागण नन्दीश्वर द्वीप में जाकर अष्टाह्निक महोत्सव मनाया करते हैं ।' दिगम्बर परम्परा में आज भी आषाढ़, कार्तिक और फाल्गुन की पूर्णिमाओं (चातुर्मासिक पूर्णिमाओं) के पूर्व अष्टाह्निक पर्व मानने की प्रथा है । लगभग आठवीं शताब्दी से दिगम्बर साहित्य में इसके उल्लेख मिलते हैं। प्राचीनकाल में पर्युषण आषाढ़ पूर्णिमा को मनाया जाता था और उसके साथ ही आष्टाह्निक महोत्सव भी होता था । हो सकता है कि बाद में जब पर्युषण भाद्र शुक्ल चतुर्थी / पंचमी को मनाया जाने लगा तो उसके साथ भी अष्ट-दिवस जुड़े रहे और इस प्रकार वह अष्ट दिवसीय पर्व बन गया । वर्तमान में पर्युषण पर्व का सबसे महत्त्वपूर्ण दिन संवत्सरी पर्व माना जाता है । Jain Education International जैन एकता का प्रश्न : २६ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003245
Book TitleJain Ekta ka Prashna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2011
Total Pages34
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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