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प्रतीकात्मककला के सहारे ही विकसित हुई है। हमारी भाषा और हमारे शब्द-संकेत, जिनके आधार पर हमारे धर्मशास्त्र रचे गए है, मानवीय भावनाओं और विचारों की अभिव्यक्ति की प्रतीकात्मक शैली है। चाहे हम वृक्षों की पूजा करें, स्तूपों की पूजा करें, चाहे शास्त्रों की पूजा करें, सभी प्रतीक पूजा के रूप में है। वास्तविकता यह है कि मानव अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति के लिए प्रतीकों, चित्रों और प्रतिकृतियों (मूर्तियों) का उपयोग करता रहा है। मात्र यही नहीं वह अपने पूज्यजनों के प्रतीक चिहों और उनकी प्रतिकृतियों के प्रति प्राचीनकाल से ही श्रद्धा और सम्मान का भाव रखता आया है । आदिम जातियों में तथा हिन्दू धर्म में प्रतीकपूजा प्रचलित है ही, किन्तु मूर्तिपूजा के कट्टर विरोधी इस्लाम धर्म में भी किसी न किसी रूप में प्रतीक पूजा प्रचलित है। काबे के पवित्र पत्थर का चुम्बन, हजरत मुहम्मद के पवित्र बाल के प्रति मुस्लिम सम्प्रदाय की आस्था, कब्र-पूजा और मुहर्रम ये सब प्रतीकपूजा के ही तो रूप हैं । अधिक क्या मूर्तिपूजा के विरोधी जैनधर्म के स्थानवासी, तेरापंथी और तारणपंथी सम्प्रदायों के अनुयायियों के घरों में भी अपने पूज्य माता-पिताओं, धर्म-गुरुओं और साधु-साध्वियों के चित्रो को सुविधा से देखा जा सकता है। स्थानकवासी और तेरापंथी परम्परा के अधिकांश घर अब अपने आचार्यों के चित्रों से मंडित हैं और उन चित्रों के प्रति उनके मन में श्रद्धा और आदर का भाव है । लेखक ने स्वयं अनेक स्थानों पर स्थानकवासी और तेरापंथी आचार्यों के चित्रों के समीप उनके अनुयायियों को धूपदीपदान करते देखा है। अनेक स्थानकवासी, तेरापंथी और तारणपंथी तीर्थयात्रा करते हुए आसानी से देखे जा सकते हैं। यद्यपि निर्गुणोपासना या भावाराधना एक उच्च स्थिति है किन्तु मूर्ति का पूर्ण विरोध समुचित नहीं है । मूर्तियों और चित्रो के प्रति मनुष्य का आकर्षण और श्रद्धाभाव स्वाभाविक है।
यह भी सही है कि मनुष्यों की भावनाओं के पवित्रीकरण एवं वीतराग के गुणों का स्मरण दिलाने में मूर्ति निमित्त कारण अवश्य है। वह ध्यान का आलम्बन है तथा हमारे हृदयों को पवित्र भावनाओं और श्रद्धा से आपूरित करती है । अत: मूर्ति का एकान्तिक विरोध भी उचित नहीं हैं। यद्यपि मूर्ति को मूर्तिरूप में ही स्वीकार करना चाहिए। वह वीतराग प्रभु या भगवान् नहीं। मूर्ति भगवान् है-यह मानने के कारण अनेक अन्धविश्वासों को बढ़ावा मिलता है। मूर्तियों के सम्बन्ध में अनेक चमत्कारिक घटनाएँ प्रचलित हैं, वे चाहे एक बार हमारी श्रद्धा को आन्दोलित करती हों किन्तु जैनधर्म की साधना और उपासना से उसका कोई सम्बन्ध नहीं है। मूर्तियों की चमत्कारिकता की
जैन एकता का प्रश्न : १९
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