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मान्यता के पीछे निरपेक्ष अहिंसा के सिद्धान्त का और तत्सम्बन्धी सूत्रकृतांग आदि के कुछ आगमिक प्रमाणों का बल भी हो, किन्तु यह अवधारण मनुष्य की जनकल्याणकारी प्रवृत्तियों के विरोध में जाती है और लोक व्यवहार में जैनधर्म को आलोचना का विषय बनाती है। यही कारण है कि तेरापन्थ परम्परा के व्यवहारकुशल आचार्य तुलसी ने इस वास्तविकता को समझा है और लोक व्यवहार के नाम पर ही सही, लोक कल्याणकारी प्रवृत्तियों के लिए श्रावक संघ को प्रोत्साहित किया है। इस सम्बन्ध में कट्टर तेरापंथियों ने उनकी आलोचना भी की है, किन्तु उन्होंने साहसपूर्वक यह परिवर्तन किया है। राणावास की शिक्षा संस्थाएँ और लाडनूं का आयुर्वेदिक चिकित्सा केन्द्र इस बात का स्पष्ट प्रमाण हैं । आज कोई भी तेरापन्थी मुनि अन्य सम्प्रदाय के मुनियों को आहार देने में या असंयती जनों की सेवा करना पाप है-ऐसा स्पष्ट उद्घोष नहीं करता है। यह एक शुभ लक्षण है-इसके कारण तेरापंथ और दूसरे जैन सम्प्रदायों के बीच की दूरी कम हुई है और वह जन साधारण में आलोचना का विषय बनने से बचा है। व्यवहार के क्षेत्र में सेवा और दान का महत्त्व है, इतना तो हमें मानकर चलना होगा। हमारी एकता का स्वरूप क्या हो ?
एकता की बात करना सहज है, किन्तु वह एकता किस प्रकार सम्भव होगी, यह बता पाना कठिन है। एकता का एक रूप तो वह हो सकता है, जिसमें सभी अपने नामरूप खोकर एक हो जायें अर्थात् सभी सम्प्रदाय विलीन होकर जैनधर्म और समाज का एक ही रूप अस्तित्व में रहें । एकता का यह स्वरूप आदर्श तो हो सकता है, किन्तु इसकी व्यवहार्यता सन्देहास्पद है। आज सम्प्रदायों की जड़ें इतनी गहरी जम चुकी हैं कि उन्हें पूरी तरह उखाड़ पाना सम्भव नहीं है। सम्प्रदायों के अस्तित्व के साथ ही लोगों के हित और सम्मान के प्रश्न जुड़े हुए हैं। बाहर से चाहे हम सब एकता की बातें करें, किन्तु भीतर से कोई भी अपने अस्तित्व और अहं को विलीन करने को तैयार नहीं है। जब भी हमें अपने हितों या अस्तित्व के प्रति खतरा नजर आता है, हम धर्म खतरे में है' का नारा लगाना प्रारम्भ कर देते हैं। जब आज हम एक मूर्ति या मन्दिर पर से भी अपना अधिकार छोड़ना नहीं चाहते है, तो क्या यह सम्भव है कि हम अपनी सम्पूर्ण सामाजिक एवं धार्मिक सम्पत्ति को समर्पित करने को सहज ही तैयार हो जाएंगे। जब स्थानकवासी मुनि वर्ग ही अपनी बनाई हुई एकता को कायम नहीं रख सका, तो यह कैसे कहा जा सकता है कि सभी सम्प्रदायों के मुनि और श्रावक अपनी-अपनी धारणाओं को त्याग कर एक सूत्र में बंध जाएँगे।
जैन एकता का प्रश्न : २२
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