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________________ - जैन समाज में और विशेषरूप से स्थानकवासी समाज में अभी भी कुछ ऐसे आचार्य एवं प्रमुख मुनिगण है, जो दूसरे सम्प्रदाय के आचार्यों एवं मुनियों के साथ बैठने, प्रवचन देने, उनसे विचार-चर्चा करने में अपने सम्यकत्व की हानि समझते हैं। हमारा अहं एक पाट से भी सन्तुष्ट नहीं होता-पाट पर पाट लगाया जाता है, जबकि कहीं आर्यिकाओं को और कहीं तो सामान्य मुनियों को भी उनके सम्मुख भूमि पर बैठना होता है। अनेकों में यह ललक होती है कि दूसरे समाज के प्रतिष्ठित आचार्य, विद्वान और राजनेता उनके समीप तो आयें किन्तु उन्हें बराबरी का आसन देने में हम संकोच का अनुभव करते हैं। अनेक बार ऐसी घटनाएँ आलोचना का विषय बनी हैं और उन्होंने पारस्परिक वैमनस्य की खाई को अधिक चौड़ा किया है। अपने को सम्यक्तवी, अपने को संयती (साधु) और दूसरे को असंयती (असाधु), अपने को शुद्धाचारी और दूसरों को शिथिलाचारी मानना या कहना भी भावात्मक एकता की सबसे बड़ी बाधा है, अत: इस दृष्टि को सबसे पहले छोड़ना होगा मुनि आचार में तरतमता महावीर से लेकर आज तक रही है और भविष्य में भी रहेगी किन्तु व्यावहारिक जीवन में यदि इस आधार पर भेदभाव किया जाएगा, तो सामाजिक एकता खण्डित होगी। क्या एक ही सम्प्रदाय के सभी साधु ज्ञान, तपस्या, साधना आदि की दृष्टि से समान होते हैं ? यदि उनमें तरतमता होते हुए भी उनके प्रति समान व्यवहार होता है, तो फिर अन्य सम्प्रदायों के प्रति समादर एवं समानता का व्यवहार क्यों नहीं किया जा सकता। यद्यपि यह प्रसन्नता का विषय है कि आज अधिकांश मुनियों में पारस्परिक मिलन और समादर की भावना बढ़ी है और इसके सुफल भी सामने आये हैं, पुरानी कटुता और आलोचना-प्रत्यालोचना में कमी हुई है, फिर भी अभी प्रयत्नों की आवश्यकता है, जिससे विविध सम्प्रदाय के आचार्य एक दूसरे के निकट आ सके, ताकि भावात्मक एकता की दिशा में हम आगे बढ़ सक। हमारी एकरूपता के आदर्श स्वरूप का प्रस्तुतीकरण तो हमने विवादस्पद प्रश्नों की चर्चा करते हुए किया है, किन्तु उनकी व्यवहार्यता आज कितनी होगी? यह बता पाना कठिन है। अत: एकता के आदर्श की ओर बढ़ने के लिए हमें कुछ चरण निश्चित कर लेने होंगे। प्रथम चरण में हमें वे कार्य करने होंगे, जिनसे पारस्परिक कटुता कम हो। इन सम्बन्ध में निम्न उपाय करने होंगे - (1). मूर्तियों मंदिरों और तीर्थों अथवा अन्य सम्पत्ति सम्बन्धी विवाद यथाशीघ्र निपटा लिये जाएँ। इसके लिए निष्पक्ष लोगों का एक न्यायाधिकरण (पंचायत) बना दिया जाए और सभी विवाद उसे सुपुर्द कर दिये जायें। वह विवादों के तथ्यों की समीक्षा जैन एकता का प्रश्न : २३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003245
Book TitleJain Ekta ka Prashna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2011
Total Pages34
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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