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________________ दिगम्बर मुनिसंघ यद्यपि अभी अल्पसंख्या में हैं, किन्तु उसमें भी बिखराव के लक्षण उभर कर सामने आने लगे है। अलग-अलग तम्बू लगने लगे हैं । कानजीपन्थ और मूल आम्नाय का विवाद तो खुलकर सामने आ ही गया था, चाहे कानजी स्वामी के स्वर्गवास के पश्चात् उसमें कुछ कमी आई हो ? बात कठोर अवश्य है, किन्तु सही स्थिति यह है कि आज समाज का अधिकांश मुनिवर्ग, कुछ नेतृत्व के भूखे श्रावक और पण्डित अपनी दुकान जमाने के चक्कर में है ? अपनी पूजा एवं प्रतिष्ठा बटोरने के प्रयास में है। वे सभी महावीर के नाम का उपयोग तो केवल इसलिए करते हैं कि अपनी दुकान चल निकले। जब हम सब अपनी दुकान जमाने को आतुर होंगे तो महावीर की दुकान कौन चलायेगा ? जब मुनीम अपनी दुकान जमाने के फेर में पड़ जाता है तो सेठ की दुकान की क्या स्थिति होगी - यह सुविदित ही है। जैन एकता की पीठ में जब कोई छुरा गया है तो ऐसे ही लोगों के द्वारा भोंका गया है। बिखराव का मूल कारण - प्रतिष्ठा की भूख समाज में जब भी कोई मुनि या पण्डित थोड़ा बहुत प्रवचन- पटु बना कि वह अपना एक तम्बू अलग गाड़ने का प्रयास करने लगता है । अपने उपासक, अपनी संस्था और अपना पत्र इस प्रकार एक नया वर्ग खड़ा हो जाता है और बिखराव की स्थिति आ जाती है । बिखराव इसलिए होता है कि समाज की आस्था का मूल केन्द्र महावीर या उनका धर्म न होकर वह मुनि, आचार्य या विद्वान् होता है। लेखक ने स्वयं देखा है कि आज स्थानकवासी समाज में अधिकांश मुनि और साध्वियाँ प्रवचन के पूर्व में, अन्त मे और प्रार्थनाओं मे अपने-अपने वर्तमान आचार्यों का ही स्तवन गान करते हैं। अब तो भक्तामर - शैली में संस्कृत भाषा में निबद्ध जीवित आचार्यों के स्तोत्र बन चुके हैं। शायद आज हम उस महावीर को भुला चुके हैं, जिसे हमारी सभी की आस्था का केन्द्र होना चाहिये और जिसके आधार पर ही हम सब एकता के सूत्र में बंध सकते हैं। जो जैन धर्म गुणपूजक था, जिसके महान् आचार्यों ने अपने नमस्कार - मन्त्र में किसी भी व्यक्ति का, यहाँ तक कि महावीर का भी नाम न रखा था, उसमें बढ़ती हुई यह व्यक्ति - उपासना ही हमारे बिखराव का कारण है । यदि हम सच्चे हृदय से जैन-1 - एकता को चाहते हैं तो समाज से ये व्यक्तिपरक स्तुतियाँ तत्काल बन्द कर देना चाहिये । सार्वजनिक प्रार्थनासभाओं प्रवचनों आदि में केवल तीर्थकरों का ही स्तवन हो, किसी आचार्य या मुनि विशेष का नहीं । आचार्यों और मुनियों के प्रति विनयभाव तो रहे, Jain Education International जैन एकता का प्रश्न : ६ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003245
Book TitleJain Ekta ka Prashna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2011
Total Pages34
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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