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________________ समाज, तथा विपुल साहित्यिक एवं पुरातत्त्वीय सम्पदा का धनी यह समाज आज उपक्षित क्यों है ? आज 'संघे शक्तिः कलियुगे' लोकक्ति को ध्यान में रखना होगा। अन्यथा धीरे-धीरे हमारा अस्तित्व नाम-शेष हो जायेगा। हमारे बिखराव के कारण __ यद्यपि यह सही है कि जैन समाज की इस विच्छिन्न दशा पर प्रबुद्ध विचारकों ने सदैव ही चार-चार आँसू बहाये हैं और इसकी वेदना का हृदय की गहराईयों तक अनुभव किया है। इसी दशा को देखकार अध्यात्मयोगी सन्त आनन्दघनजी को कहना पड़ा था गच्छना बहुभेद नयने निहालतां तत्व नी बात करता नी लाजे। यद्यपि प्रबुद्ध वर्ग के द्वारा समय-समय पर एकता के प्रयत्न भी हुए हैं, चाहे उनमें अधिकांश उपसम्प्रदायों की एकता तक ही सीमित रहे हों। भारत जैन महामण्डल, वर्द्धमान स्थानकवासी जैन श्रमण संघ, श्वेताम्बर जैन कान्फ्रेन्स, दिगम्बर जैन महासभा, स्थानकवासी जैन कान्फ्रेन्स इसके अवशेष हैं। इनके लिए अवशेष शब्द का प्रयोग में जानबूझकर इसलिए कर रहा हूँ कि आज न तो कोई अन्तर की गहरईयों से इनके प्रति श्रद्धानिष्ठ है और न इनकी आवाज में कोई बल है- ये केवल शोभा मूर्तियाँ हैं- जिनके लेबल का प्रयोग हम साम्प्रदायिक स्वार्थों की पूर्ति के लिए या एकता का ढिढोरा पीटने के लिए करते रहते हैं। अन्दर में हम सब पहले श्वेताम्बर, स्थानकवासी, मूर्तिपूजक, दिगम्बर, बीस-पन्थी, तेरापंथी, कानजीपन्थी हैं, बाद में जैन । वस्तुत: जब तक यह दृष्टि नहीं बदलती है, इस समीकरण को उलटा नहीं जाता, तब तक जैन समाज की भावात्मक एकता का कोई आधार नहीं बन सकता। आज स्थानकवासी जैन श्रमण संघ को, जिसके निर्माण के पीछे समाज के प्रबुद्धवर्ग का वर्षों का श्रम एवं साधना थी और समाज का लाखों रुपया व्यय हुआ था, किसने नामशेष बनाया है? इसके लिए बाहर के लोगों की अपेक्षाभी अन्दर के लोग अधिक जवाबदार हैं। श्वेताम्बर मूर्तिपूजक समाज के मुनिवर्ग के अहमदाबाद सम्मेलन का कोई प्रभावकारी परिणाम क्यों नहीं निकला? . आज तेरापन्थ जिसकी एकता पर हमें नाज था, बिखराव की स्थिति में क्यों है? जैन एकता का प्रश्न : ५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003245
Book TitleJain Ekta ka Prashna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2011
Total Pages34
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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