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________________ जिसमें उन्हें राजकुमार के रूप में तपस्या करते हुए अंकित किया गया था। चूँकि यह प्रतिमा उनके जीवनकाल में ही निर्मित हुई थी, इसलिए इसे जीवन्तस्वामी की प्रतिमा कहा गया है। जीवन्तस्वामी की प्रतिमा का उल्लेख संघदासगणिकृत वसुदेवहिण्डी, जिनदासकृत आवश्यकचूर्णि और हरिभद्रसूरि की आवश्यकवृत्ति में है, पर ये सभी परवर्ती काल अर्थात् ईसा की पाँचवी, छठी, सातवीं और आठवीं शताब्दी की रचनाएँ हैं। उनके कथन की प्रामाणिकता को केवल श्रद्धा के आधार पर ही स्वीकार किया जा सकता है । जीवन्तस्वामी की प्राप्त सभी प्रतिमाएँ पुरातात्त्विक दृष्टि से पाँचवीं-छठी शताब्दी की हैं। जीवन्तस्वामी की प्रतिमा के सम्बन्ध में डॉ. मारुतिनन्दनप्रसाद तिवारी का यह निष्कर्ष द्रष्टव्य है “पाँचवी-छठी शताब्दी ईसवी के पहले जीवन्तस्वामी के सम्बन्ध में हमें किसी प्रकार की ऐतिहासिक सूचना प्राप्त नहीं होती है।" इस प्रकार कोई भी ऐसा साहित्यिक और पुरातात्विक साक्ष्य प्राप्त नहीं होता है, जिसके आधार पर महावीर के पूर्व अथवा उनके जीवनकाल में जिन-प्रतिमा की उपस्थिति को सिद्ध किया जा सके। यद्यपि पुरातात्विक साक्ष्यों के आधार पर निश्चित रूप से यह कहा जा सकता है कि जिन-प्रतिमा का निर्माण महावीर के निर्वाण के लगभग डेढ़ सौ-दो सौ वर्ष पश्चात् अर्थात् ईसा पूर्व की तीसरी, चौथी शताब्दी में हो गया था। सबसे प्राचीन उपलब्ध जिन-प्रतिमा लोहनीपुर की है जो पटना संग्रहालय में सुरक्षित है। यह प्रतिमा लगभग ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी की है । यद्यपि मूर्ति का शिरोभाग अनुपलब्ध है, किन्तु मूर्ति की दिगम्बरता और कायोत्सर्ग मुद्रा उसे जिन-प्रतिमा सिद्ध करती है। मौर्ययुगीन चमकदार आलेप के अतिरिक्त उसी स्थल के उत्खनन से प्राप्त मौर्ययुगीन ईंटें एवं एक रजत आहत मुद्रा भी मूर्ति के मौर्यकालीन होने के समर्थक साक्ष्य हैं। इसी काल की कुछ अन्य जिन-प्रतिमाएँ एवं तत्सम्बन्धी हाथी-गुफा के शिलालेख भी उपलब्ध हैं। ईसा पूर्व दूसरी और प्रथम शताब्दी की तो अनेक जिन-प्रतिमाएँ और आयागपट मथुरा से प्राप्त हुए हैं, जिनसे यह स्पष्ट रूप से सिद्ध होता है कि जैनधर्म में मूर्तिपूजा का प्रचलन ईसा से लगभग तीन सौ वर्ष पूर्व प्रारम्भ हो गया था। चाहे यह बात विवादास्पद हो सकती है कि महावीर ने जिन-प्रतिमा के पूजन का उपदेश दिया था या नहीं? किन्तु यह निर्विवाद सत्य है कि जैनधर्म में जिन-प्रतिमा के निर्माण और पूजन की परम्परा लगभग बाईस सौ, तेईस सौ वर्षों से निरन्तर चली आ रही है। पुन: जिनप्रतिमाएँ और जिन-मन्दिर, जैनधर्म, जैन संस्कृति और इतिहास की एक महत्त्वपूर्ण जैन एकता का प्रश्न: १७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003245
Book TitleJain Ekta ka Prashna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2011
Total Pages34
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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