Book Title: Jain Ekta ka Prashna Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Prachya Vidyapith ShajapurPage 32
________________ प्रारम्भ कर दियाथा, किन्तु तबभी कुछ कठोर आचारवान् साधुथे जो इसे आगमानुकूल नहीं मानते थे। उन्हीं को लक्ष्य में रख कर चूर्णिकार ने कहा था, यद्यपि साधु को गृहस्थों के सम्मुख पर्युषण कल्प का वाचन नहीं करना चाहिए किन्तु यदि पासत्था (चैत्यवासीशिथिला-चारी साधु) पढ़ता है तो सुनने में कोई दोष नहीं है। लगता है कि आठवीं शताब्दी के पश्चात् कभी संघ की एकरूपता को लक्ष्य में रखकर किसी प्रभावशाली आचार्य ने अपवाद काल की अन्तिम तिथि भाद्र शुक्ला चतुर्थी/पंचमी को पर्युषण (संवत्सरी) मानने का आदेश दिया हो। यदि सम्पूर्ण जैन समाज की एकता की दृष्टि से विचार करें तो आज साधुसाध्वी वर्ग को स्थान उपलब्ध होने में सामान्यतया कोई कठिनाई नहीं होती है। आज सभी परम्परा के साधु-साध्वी आषाढ़ पूर्णिमा को वर्षावास की स्थापना कर लेते हैं और जब अपवाद का कोई कारण नहीं है तो फिर अपवाद का सेवन क्यों किया जाये ? दूसरे भाद्रपद शुक्लपक्ष में पर्युषण/संवत्सरी करने से, जो अपकाय और त्रस की विराधना से बचने के लिए संवत्सरी के पूर्व केश लोच का विधान था, उसका कोई मूल उद्देश्य हल नहीं होता है । वर्षा में बालों के भीगने से अपकाय की विराधना और त्रस जीवों की उत्पत्ति की सम्भावना रहती है। अत: उत्सर्ग मार्ग के रूप में आषाढ़ पूर्णिमा को संवत्सरी/पर्युषण करना ही उपयुक्त है इसमें आगम से कोई विरोध भी नहीं है और समग्र जैन समाज की एकता भी बन सकती है। साथ ही दो श्रावण या दो भाद्रपद का विवाद भी स्वाभाविक रूप से हल हो जाता है। .. यदि अपवाद मार्ग को ही स्वीकार करना है तो फिर अपवाद मार्ग के अन्तिम दिन भाद्र शुक्ला पंचमी को स्वीकार किया जा सकता है। इस दिन स्थानकवासी, तेरापंथी एवं मूर्तिपूजक सम्प्रदाय के कुछ गच्छ तो मनाते ही हैं, शेष मूर्तिपूजक समाज को भी इसमें आगमिक दृष्टि में कोई बाधा नहीं आती है। क्योंकि कालकाचार्य की भाद्रपद शुक्ला चतुर्थी की व्यवस्था आपवादिक व्यवस्था थी और एक नगर-विशेष की परिस्थिति विशेष पर आधारित थी। सम्भवत: यदि कालकाचार्य भी दूसरे वर्ष जीवित रहते तो स्वयं भी चतुर्थी को पर्युषण नहीं करते। उनके शिष्य वर्ग ने इसे गुरू का अन्तिम आदेश मानकर चतुर्थी की परंपरा की हो परंतु इसमें परिवर्तन करना आगम विरूद्ध नहीं है। यह तर्क कि ऐसा करने में एक दिन की आलोचना नहीं होगी उचित नहीं है क्योंकि हम आलोचना 360 दिन की करते हैं जबकि वर्ष में 354 दिन ही होते हैं। पुन: अधिक जैन एकता का प्रश्न : ३१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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