Book Title: Jain Ekta ka Prashna
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 22
________________ देना चाहिए, यह पूर्णत: ब्राह्मण संस्कृति का प्रभाव है। मात्र यही नहीं द्रव्य-पूजा की अपेक्षा भावपूजा पर और प्रभु-भक्ति के माध्यम से प्रभु के गुणों को जीवन में उतारने का लक्ष्य अधिक रहे। जिन-प्रतिमा हमारी भावनाओं की विशुद्धि का साधन है और एक साधन के रूप में उसका स्थान है। यहाँ यह भी ध्यान रखना होगा कि मूर्ति और उसकी द्रव्यपूजा की आवश्यकता, साधना और ज्ञान के प्राथमिक स्तर पर उसी प्रकार है, जिस प्रकार वर्णमाला का अर्थबोध कराने के लिए प्राथमिक स्तर पर चित्रों की सहायता अपेक्षित है। मुखवसित्रका के प्रश्न का समन्वय श्वे. सम्प्रदायों में एक विवाद मुखवस्त्रिका को लेकर भी है । स्थानकवासी और श्वेताम्बर-तेरापंथी डोरा डालकर उसे सदैव ही मुख पर बाँधे रहते हैं। मुखवस्त्रिका का विकास महावीर के परवर्ती काल में हुआ है। ऐसा कोई भी ठोस प्रमाण नहीं है, जिससे सिद्ध हो कि महावीर ने मुखवस्त्रिका रखी थी। आचारांग के प्राचीनतम अंश प्रथम श्रुतस्कन्ध में मुखवस्त्रिका का उल्लेख नहीं है । यद्यपि लगभग दो हजार वर्ष पूर्व से इसका प्रयोग श्वेताम्बर परम्परा में होता रहा है, ऐसा श्वेताम्बर आगम साहित्य से सिद्ध होता है । तथापि डोरा डालकर बाँधने के सम्बन्ध में ठोस ऐतिहासिक प्रमाण 1718वीं के पूर्व के नहीं मिले हैं। मुखवस्त्रिका के उपयोग का मुख्य उद्देश्य तो वायुकायिक जीवों की रक्षा है । डोरा डालकर उसका प्रयोग करना मात्र एक सुविधा की बात है। एकता की दृष्टि से इस समस्या का हल यही हो सकता है-प्रवचन आदि के प्रसंगों पर उसे बाँधा जाये, अन्य अवसरों पर बातचीत करते समय उसका सावधानीपूर्वक उपयोग किया जाये। दया-दान के विवाद का प्रश्न - श्वेताम्बर-तेरापंथ का जैन समाज के अन्य सम्प्रदायों से मुख्य विवाद दयादान के प्रश्न को लेकर है । यद्यपि आज यह कहा जाता है कि आचार्य भिक्षु ने स्थानकवासी समाज के साधुओं मे आई आचारगत विकृतियों को दूर करने के लिए क्रान्ति की थी; चाहे इस बात में आंशिक सत्यता भी हो किन्तु मूल बात तो विचारगत भिन्नता की थी। मूल प्रश्न यही था कि लोक-मंगल के उन कार्यों को, जिनमें अल्पतम हिंसा की भी सम्भावना हो, धर्म के अर्न्तगत माना जाये अथवा नहीं ? आचार्य भिक्षु ने ऐसे कार्यों को स्पष्टरूप से धर्म साधना के अन्तर्गत नहीं माना था। चाहे उनकी इस , जैन एकता का प्रश्न : २१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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