Book Title: Jain Ekta ka Prashna
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 26
________________ पर्युषण पर्व एवं संवत्सरी की एकरूपता का प्रश्न जैन परम्परा में पर्यों को दो भागों में विभाजित किया गया हैं- एक लौकिक पर्व और दूसरे आध्यात्मिक पर्व। पयुर्षण की गणना आध्यात्मिक पर्व के रूप में की गई है। इसे पर्वाधिराज कहा जाता है। आगमिक साहित्य में उपलब्ध सूचनाओं के आधार पर पर्युषण पर्व अति प्राचीन प्रतीत होता है। प्राचीन आगम साहित्य में इसकी निश्चित तिथि एवं पर्व दिनों की संख्या का उल्लेख नहीं मिलता है। मात्र इतना ही संकेत मिलता है कि भाद्र शुक्ला पंचमी का अतिक्रमण नहीं करना चाहिये । वर्तमान में श्वेताम्बर परम्परा का मूर्तिपूजक सम्प्रदाय इसे भाद्रकृष्णा द्वादशी से भाद्र शुक्ला चतुर्थी तक तथा स्थानकवासी और तेरापंथी सम्प्रदाय इसे भाद्र कृष्णा त्रयोदशी से भाद्र शुक्ला पंचमी तक मानता है। दिगम्बर परम्परा में यह पर्व भाद्र शुक्ला चतुर्दशी तक मनाया जाता है। उसमें इसे दस लक्षण पर्व के नाम से भी जाना जाता है। श्वे. परम्परा के बृहद-कल्प भाष्य में और दिगम्बर परम्परा के मूलाचार में और यापनीय परम्परा के ग्रन्थ भगवती आराधना में दस कल्पों के प्रसंग में पण्णोसवण कप्प का भी उल्लेख है, किन्तु इन ग्रन्थों के साथ ही श्वे. छेदसूत्र- आयारदसा (दशाश्रुतस्कन्ध) तथा निशीथ में ‘पज्जोसवण का उल्लेख है। आयारदशा एवं निशीथ आदि आगम ग्रन्थों में पर्युषण (पज्जोसवण) का प्रयोग भी अनेक अर्थों में हुआ है। निम्न पंक्तियों में हम उसके इन विभिन्न अर्थों पर विचार करेंगे। ___(1) श्रमण के दस कल्पों में एक कल्प ‘पज्जोसवण कल्प' है। इसका अर्थ है- वर्षावास में पालन करने योग्य आचार के विशेष नियम। (2) निशीथ (10/45) में उल्लेख है कि जो भिक्षु ‘पज्जोसवणा में किंचितमात्र भी आहार करता है उसे चातुर्मासिक प्रायश्चित आता है। इस सन्दर्भ में 'पज्जोवसण शब्द समग्र वर्षावास का सूचक नहीं हो किसी दिन विशेष का सूचक हो सकता है, समग्र वर्षाकाल का नहीं। क्योंकि सम्पूर्ण वर्षावास में आहार का निषेध सम्भव नहीं है। पुनः यह भी कहा गया है कि जो भिक्षु अपर्युषण काल में पर्युषण करता है और पर्युषण काल में पयुर्षण नहीं करता है, वह दोषी है (निशीथ 10/43) इस प्रसंग खा जैन एकता का प्रश्न : २५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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