Book Title: Jain Ekta ka Prashna Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur View full book textPage 4
________________ साम्प्रदायिकता का विष आज जैन समाज का श्रम, शक्ति और धन किन्हीं रचनात्मक कार्यों में लगने के बजाय पारस्परिक संघर्षों, तीर्थों और मन्दिरों के विवादों, ईर्ष्यायुक्त प्रदर्शनी और आडम्बरों तथा थोथी प्रतिष्ठा की प्रतिस्पर्धा में किये जाने वाले आयोजनों में व्यय हो रहा है । इस नग्न सत्य को कौन नहीं जानता है कि हमने एक-एक तीर्थ और मन्दिर के झगड़ो मे इतना पैसा बहाया है और बहा रहे हैं कि उस धन से उसी स्थान पर दस-दस भव्य और विशाल मन्दिर खड़े किये जा सकते थे । अन्तरिक्ष पार्श्वनाथ, मक्सी, रियाजी जैसे अनेक तीर्थ स्थलों पर आज भी क्या हो रहा है? जिस जिन - प्रतिमा को हम पूज्य मान रहे है, उसके साथ क्या-क्या दुष्कर्म हम नहीं कर रहे हैं ? उस पर उबलता पानी डाला जाता है, नित्यप्रति गरम शलाखों से उसकी आँखें निकाली और गायी जाती हैं। अनेक बार लंगोट आदि के चिन्ह बनाये और मिटाये गये हैं। क्या यह सब हमारी अन्तरात्मा को कचोटता नहीं है ? पारस्परिक संघर्षों में वहाँ जो घटनाएँ घटित हुई हैं, वे क्या एक अहिंक समाज के लिए शर्मनाक नहीं है ? क्या यह उचित है कि चींटी की रक्षा करनेवाला समाज मनुष्यों के खून से होली खेले ? पत्र-पत्रिकाओं मे एक दूसरे के विरुद्ध जो विष वमन किया जाता है, लोगों की भावनाओं को एक-दूसरे के विपरीत उभाड़ा जाता है, वह क्या समाज के प्रबुद्ध विचारकों के हृदय को विक्षोभित नहीं करता है ? आज आडम्बरपूर्ण गजरथों, पञ्चकल्याणकों और प्रतिष्ठा समारोहों, मुनियों के चातुर्मासों में चलने वाले चौकों ओर दूसरे आडमबरपूर्ण प्रतिस्पर्धी आयोजनों में जो प्रतिवर्ष करोड़ों रुपयों का अपव्यय हो रहा है, वह क्या धन के सदुपयोग करनेवाले मितव्ययी जैन समाज के लिए हृदय विदारक नहीं है । भव्य और गरिमापूर्ण आयोजन बुरे नहीं हैं, किन्तु वे जब साम्प्रदायिक दुरभिनिवेश और ईर्ष्या के साथ जुड़ जाते हैं तो अपनी सार्थकता खो देते हैं। पारस्परिक प्रतिस्पर्धा में हमने एक - एक गाँव में और एक-एक गली में दस-दस मन्दिर तो खड़े कर लिये किन्तु उनमें आबू, राणकपुर जैसलमेर खुजराहो या गोम्मटेश्वर . जैसी भव्यता एवं कला से युक्त कितने हैं ? एक-एक गाँव या नगर में चार-चार धार्मिक पाठशालाएँ चल रही हैं, विद्यालय चल रहे हैं किन्तु सर्व सुविधा सम्पन्न सुव्यवस्थित विशाल पुस्तकालय एवं शास्त्र भण्डार से युक्त जैन विद्या के अध्ययन और अध्यापनकेन्द्र तथा शोध संस्थान कितने हैं ? अनेक अध्ययन-अध्यापन केन्द्र साम्प्रदायिक Jain Education International जैन एकता का प्रश्न : ३ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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