Book Title: Jain Ekta ka Prashna
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

Previous | Next

Page 9
________________ पद्धति को ही एकमात्र और अन्तिम सत्य तथा अपने धर्मगुरु को ही सत्य का एकमात्र प्रवर्तक मान लेता है, तो परिणामस्वरूप साम्प्रदायिक वैमनस्य का सूत्रपात हो जाता है। वस्तुतः धार्मिक वैमनस्यों और धार्मिक संघर्षों के मूलभूत कारण मनुष्य का अपने धर्माचार्य और सम्प्रदाय के प्रति आत्यन्तिक रागात्मकता तथा तज्जन्य अपने मत की एकान्तिक सत्यता का आग्रह ही है । यद्यपि बिखराव के अन्य कारण भी होते हैं। I वस्तुतः धार्मिक विविधताओं और धर्म सम्प्रदायों के उद्भव के अनेक कारण होते हैं, जिनमें से कुछ उचित कारण और कुछ अनुचित कारण होते हैं । उचित कारण निम्न हैं- 1. सत्य सम्बन्धी दृष्टिकोण - विशेष या विचार भेद, 2. देशकालगत भिन्नता के आधार पर आचार सम्बन्धी नियमों की भिन्नता, 3. पूर्वप्रचलित धर्म सम्प्रदाय में युग की आवश्यकता के अनुरूप परिवर्तन या संशोधन । जबकि अनुचित कारण ये हैं- 1. वैचारिक दुराग्रह, 2. पूर्व सम्प्रदाय या धर्म में किसी व्यक्ति का अपमानित होना, 3. किसी व्यक्ति की प्रसिद्धि पाने की महत्त्वाकांक्षा, 4. पूर्व सम्प्रदाय के लोगों से अनबन हो जाना । यदि हम उपर्युक्त कारणों का विश्लेषण करें, तो हमारे सामने दो बातें स्पष्टतः आ जाती हैं। प्रथम, यह कि देशकालगत तथ्यों की विभिन्न, वैचारिक अथवा प्रचलित ' परम्पराओं में आयी हुई विकृतियों के संशोधन के निमित्त विविध धार्मिक सम्प्रदायों का उद्भव होता है; किन्तु ये कारण ऐसे नहीं हैं जो साम्प्रदायिक वैमनस्य के आधार कहे जा सके। वस्तुत: जब भी इनके साथ मनुष्य के स्वार्थ, दुराग्रह, अहंकार, महत्त्वाकांक्षा और पारस्परिक ईर्ष्या के तत्त्व प्रमुख बनते है; तभी धार्मिक उन्मादों का अथवा साम्प्रदायिक कटुता का जन्म होता है और शान्ति प्रदाता धर्म ही अशान्ति का कारण बन जाता है। आज के वैज्ञानिक युग में जब व्यक्ति धर्म के नाम पर यह सब देखता है तो उसके मन में धार्मिक अनास्था बढ़ती है और वह धर्म का विरोधी बन जाता है । यद्यपि धर्म के विविध सम्प्रदायों में बाह्य नियमों की भिन्नता हो सकती है, तथापि यदि हमारी दृष्टि व्यापक और अनाग्रही हो तो इसमें भी एकता और समन्वय के सूत्र खोजे जा सकते हैं। साम्प्रदायिक वैमनस्य का अन्त कैसे हो ? धर्म के क्षेत्र में असहिष्णुता का जन्म तब होता है जब हम यह मान लेते हैं कि Jain Education International जैन एकता का प्रश्न : ८ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34