Book Title: Jain Ekta ka Prashna Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Prachya Vidyapith ShajapurPage 12
________________ जैनधर्म के साम्प्रदायिक मतभेद एवं उनके निराकरण के उपाय (अ) सचेलता और अचेलता का प्रश्न सर्वप्रथम हम श्वेताम्बर, दिगम्बर सम्प्रदायों के मतभेद को ही लें और देखें कि उसमें कितनी सार्थकता है। श्वेताम्बर और दिगम्बर सम्प्रदायों मे विवाद का मूल मुद्दा मुनि के नग्नत्व का है। तीर्थप्रवर्तक प्रभु महावीर निर्वस्त्र (अचेल) रहे, यह बात दोनों को मान्य है। आर्यिका (साध्वी), श्रावक और श्राविका की सवस्त्रता (सचेलता) भी दोनों को स्वीकार्य है । सवस्त्रता की समर्थक श्वेताम्बर परम्परा के प्राचीन आगमों में भी मुनि की अचेलता का न केवल समर्थन है अपितु अचेलकत्व की मुक्तकण्ठ से प्रशंसा भी की गई है। जिन और जिनकल्पी अर्थात् जिन के समान आचरण करने वाले मुनि नग्न रहते थे यह बात श्वे. परम्परा को भी मान्य है। वस्तुत: जब साम्प्रदायिक दुरभिनिवेश बढ़ा तो एक ओर श्वेताम्बरों ने जिनकल्प (अचेलकत्व) के विच्छेद की घोषणा कर दी तो दूसरी ओर दिगम्बरों ने मूलभूत आगम-साहित्य को ही अमान्य कर दिया। इस विवाद का परिणाम यहाँ तक हुआ कि श्वे. साहित्य में यह कह दिया गया कि जिनकल्पी मुक्त नहीं होता है। वह केवल स्वर्गगामी होता है, जब कि दिगम्बर आचार्यों ने यह कह दिया कि यदि तीर्थकर भी सवस्त्र होगा तो मुक्त नहीं होगा। निष्पक्षरूप से श्वेताम्बर परम्परा में मान्य आगम-साहित्य का अध्ययन करने पर यह बात स्पष्ट हो जाती है कि वस्त्र-पात्र आदि उपाधियों का विकास क्रमश: ही हुआ है। आचारांग मुनि के लिए मूलत: अचेलता का ही समर्थन करता है। अपवाद रूप में वह लज्जा-निवारणार्थ गुह्यांग ढकने के लिए एक कटि वस्त्र और शीत सहन नहीं कर सकने पर शीतकाल में एक या दो अतिरिक्त वस्त्र ग्रहण करने की अनुमति देता है-उन्हें भी ग्रीष्मकाल में त्याग देने की बात कहता है। इस प्रकार उसमें मुनि के लिए अधिकतम तीन और साध्वी के लिए अधिकतम चार वस्त्रों को ग्रहण करने का ही विधान है। आचारांग और समवायांग में मुनि को वस्त्र धारण करने की अनुमति तीन कारणों से दी गई है - 1. इन्द्रिय विकार, 2. लज्जाशीलता और 3. परिषह (शीत) सहन करने में असमर्थता । वस्तुत: महावीर के संघ में दीक्षित हुए युवा मुनियों को इन्द्रियविकार और लोक-लज्जा के निमित्त प्रारम्भ में अधोवस्त्र धारण करना पड़ता होगा, जिसको बाद में वे त्याग देते होंगे। स्वयं महावीर द्वारा प्रारम्भ में एकवस्त्र ग्रहण करना भी यही सूचित करता है। यद्यपि परम्परागत मान्यताएँ कुछ भिन्न हैं। भगवती आराधना जैसे दिगम्बरों जैन एकता का प्रश्न : ११ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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