Book Title: Jain Ekta ka Prashna Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Prachya Vidyapith ShajapurPage 11
________________ सम्पत्ति का दान करके जीवन-पर्यन्त अपरिग्रह की साधना की, उसके अनुयायी होने का दम्भ भरने वाले हम क्या उसी प्रभु की एक प्रतिमा या मन्दिर भी अपने दूसरे भाई को प्रदान नहीं कर सकते ? वस्तुत: हमारे जीवन-व्यवहार का जैनत्व से दूर का भी रिश्ता नहीं दिखाई देता है। हमारे अनेकान्त, अहिंसा और अपरिग्रह के सिद्धान्त मात्र दिखावा हैं -छलना हैं - वे हमारे जीवन के साथ जुड़ नहीं पाये हैं। तभी तो आध्यात्मिक सन्त आनन्दघन जी को वेदना के दो आँसू बहाते हुए कहना पड़ा था - गच्छना भेद बहु नयने निहालतां, तत्त्वनी बात करतां नी लाजे। उदरभरणदि निज काज करतां थकां, मोह नडिया कलिकाल राजे। गच्छों और सम्प्रदायों के विविध भेदों को अपने समक्ष देखते हुए भी हमें अनेकांत के सिद्धान्त की दुहाई देने में शर्म क्यों नहीं आती? वस्तुत: इस कलिकाल में व्यामोहों (दुराग्रहों) से ग्रस्त होकर सभी केवल अपना पेट भरने के लिए अर्थात् वैयक्तिक पूजा और प्रतिष्ठा पाने के लिए प्रयत्नशील हैं। भावार्थ यही है कि सम्प्रदायों और गच्छों के नाम पर हम अपनी-अपनी दुकानें चला रहे हैं। जिनप्रणीत धर्म और सिद्धान्तों का उपदेश तो केवल दूसरों के लिए है- तुम हिंसा मत करो, तुम दुराग्रही मत बनो, तुम परिग्रह का संचय मत करो आदि। किन्तु हम अपने में कहाँ हिंसा, आग्रह और आसक्ति (स्वार्थ-वृत्ति) के तत्त्व छिपे हुए हैं, इसे नहीं देखते हैं। वस्तुत: साम्प्रदायिक वैमनस्य इसीलिए है कि अहिंसा, अनाग्रह और अनासक्ति के धार्मिक आदर्श हमारे जीवन का अंग नहीं बन पाये हैं। यदि धर्म का अमुत जीवन में प्रविष्ट हो जाये तो साम्प्रदायिकता के विष का प्रवेश ही नहीं हो सकता। हम एकता की दिशा में तभी गतिशील हो सकेंगे जब जीवन में अहिंसा, अनाग्रह, नि:स्वार्थता और अपरिग्रह के तत्व विकसित होंगे। इनके विकास के साथ ही साम्प्रदायिकदौर्मनस्य अपने आप समाप्त हो जायेगा । यदि प्रकाश आयेगा तो अंधकार अपने आप समाप्त हो जायेगा। प्रयत्न अन्धकार को मिटाने का नहीं, प्रकाश को प्रकट करने का करना है। हमें प्रयत्न सम्प्रदायों को मिटाने का नहीं, जीवन में धर्म और विवेक को विकसित करने के लिए करना है। जैन एकता का प्रश्न : १० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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