Book Title: Jain Ekta ka Prashna
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 8
________________ किन्तु श्रद्धा का केन्द्र वीतरागता और समतामय धर्म ही हो- कोई व्यक्ति नहीं। संक्षेप में हम व्यक्तिपूजक नहीं, गुणपूजक बनें। समाज में जब व्यक्तिपूजा के स्थान पर गुणपूजा प्रतिष्ठित होगी तभी समाज में एकता की भावना सबल होगी। व्यक्तिपूजा, पूजक और पूज्य दोनों के अहंकार का सिंचन करती है और उनकी चारित्रिक स्खलनाओं का कारण बनती है। लेखक ने जीवित आचार्यों और मुनियों के ऐसे स्तोत्र देखे, जिनमें उनके गुणों एवं अतिशयों का ऐसा चित्रण है जो उन्हें वीतराग-प्रभु के समकक्ष ही प्रस्तुत करता है। समाज में अभिनन्दन-समारोहों और अभिनन्दन-ग्रन्थों की आयी हुई बाढ़ भी अहंकारपुष्टि का ही माध्यम है। अहंकार ऐसा मीठा जहर है - जिससे मुक्ति पाना बड़ा कठिन है। जब भी किसी व्यक्ति के ऐसे पुष्ट अहंकार पर चोट पड़ती है या ईर्ष्यावश किसी व्यक्ति की महत्त्वाकांक्षा जाग जाती है तो वह अपना अखाड़ा अलग बना लेता है। अनेक सम्प्रदायों के उद्भव के पीछे यही एक महत्त्वपूर्ण कारण रहा है। विभिन्न सम्प्रदायों के उद्भव की जो कहानियाँ जैन-ग्रन्थों में दी गई हैं, वे इस बात की पुष्टि करती हैं। किसी के अहंकार का अमर्यादित पोषण दूसरे की महत्त्वाकांक्षा को बढ़ाता है और समाज में ईर्ष्या या विद्वेष के विष-वृक्ष को पनपाता है। हमारी धार्मिक एवं सामाजिक एकता का विकास तभी सम्भव है जब सामाजिक जीवन में व्यक्तियों के अहंकार के पोषण की ये अमर्यादित प्रवृत्तियाँ प्रतिबन्धित हों और दूसरों को हीन अपमानित अनुभव करने के अवसर नहीं हों। धार्मिक सम्प्रदायों के पारस्परिक संघर्षों का उद्भव क्यों और कैसे? विभिन्न युगों मे जैनाचार्य अपने युग की तात्कालिक परिस्थितियों से प्रभावित होकर साधना के बाह्य नियमों में परिवर्तन करते रहे हैं । देशकालगत परिस्थितियों के प्रभाव के कारण और साधक की साधना क्षमता की विभिन्नता के कारण धर्म-साधना के बाह्य रूपों में ऐसे परिवर्तनों का हो जाना स्वाभाविक हो था और न केवल जैन अपितु सभी धर्मो के इतिहास में ऐसा अनेक बार हुआ है; साधना सम्बन्धी ये सब विविधताएँ धार्मिक संघर्षों का कारण नहीं बनती। साम्प्रदायिक मतान्धता और संघर्षों का कारण साधना सम्बन्धी विविधता में नहीं अपितु मनुष्य की ममता, आसक्ति, अहंकार और स्वार्थपरता में ही रहा है। वस्तुत: मनुष्य जब अपने धर्माचार्य के प्रति रागात्मकता के कारण अथवा अपने मन में व्याप्त आग्रह और अहंकार के कारण अपने धर्म, सम्प्रदाय या साधना जैन एकता का प्रश्न : ७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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